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नारी समस्या
 

जायगी। यदि महात्मा गाँधी या श्री मालवीयजी जैसे महापुरुष घर आयें और घर की स्त्रिया मुँह ढक कर सत्कार के बदले घर के कोने में बैठ जायँ तो उनका यह कार्य मर्यादा-युक्त समझा जायगा या मर्यादा-नाशक? बड़े बूढ़े भी वधुओं के सामने स्वयं को महात्मा से कम नहीं समझते। तब वे घूँघट कढ़वा कर, उनका बोलना बन्द रखकर, अपने सामने तक न आने देने में अपनी प्रतिष्ठा कैसे समझ सकते हैं?

सुधार का उद्देश उच्छ्रंखलता और फ़ैशन बढ़ाना नहीं है। सच्ची सुधारक महिलाओं में न उच्छ्रंखलता दिखाई देगी और न विलासिता। हाँ, फैशन एक सीमा तक अवश्य मिलेगी। किन्तु यह कोई रोग नहीं है। वह समाज में सदा रहती है और रहेगी। श्रृंगार कुछ स्त्रियों में ही नहीं, पुरुषों में भी दिखाई देता है। और स्वाभाविक भी है। यह बात अवश्य है कि पुरुष शीघ्र परिवर्तन कर लेते हैं और स्त्रियाँ देर से। इसके लिये उनका स्वभाव नहीं, परिस्थिति ही उत्तरदायी है।

स्त्रियाँ चाहें तो वे अपनी दुरवस्था में स्वयं परिवर्तन कर सकती हैं। उन्हें किसी का मुँह ताकने की आवश्यकता नहीं। उन्हें तो स्वयं अपने पैरों पर खड़ा होना होगा। आज उनका प्रत्येक अंग पुरुषों की विलासिता से पनपे हुए नियमों से बनता है। स्त्रियों के सारे धार्मिक नियम भी पुरुषों ने ही अपनी सुविधा के अनुसार बनाए हैं। स्त्रियों ने पति, पुत्र और परिजनों पर निष्कपट तथा विश्वास किया। उनके बनाये सिद्धांतों को कल्याण-मूलक समझकर शिरोधार्य किया। यहाँ तक कि वे अपना अस्तित्व ही पुरुषों में विलीन कर बैठीं। यदि दोष है तो उनके संकुचित क्षेत्र का।

सच देखा जाय तो स्त्रियों की सामाजिक दासता का प्रश्न भारत की राजनीतिक दासता से कहीं अधिक जटिल है। भारत अपने जाति-भेद, एकता के अभाव तथा व्यक्तिगत स्वार्थो के कारण परतन्त्र है; किन्तु महिला-समाज अपनी उदारता, सरलता और निस्वार्थता के कारण। कहा जाता है, "स्त्रियाँ भरण-पोषण के लिये ही नहीं आत्म-रक्षा के लिये भी पुरुषों के अधीन रहेंगी ही। मनुस्मृति का यह वाक्य---

पिता रक्षति कोमारे भर्त्ता रक्षति यौवने
पुत्रो रक्षति वार्धक्ये न स्त्री स्वातंत्र्यमर्हति

स्त्रियों की शारीरिक एवं मानसिक स्थिति का अध्ययन करके ही लिखा गया था" किंतु बात ऐसी नहीं है। युग की दासता ने ही स्त्रियों को शारीरिक एवं मानसिक दुर्बलता का यह अभिशाप दिया है। यदि उनके पीछे भयंकर धार्मिक और सामाजिक बन्धन न रहे होते तो