वह नर की छाया नारी
वह चकित भीत हरिनीसी
निज चरणा-चाप से शंकित
स्थापित गृह के कोने में वह दीप-शिखा सी कम्पित
थी। यदि वह पुरुष के मनोरञ्जन में समर्थ हुई तो अच्छा, अन्यथा, समाज में कन्याओं की कमी क्या! जबसे पुरुषों में विद्या का प्रचार ज़ोर पकड़ने लगा और वे पर्याप्त संख्या में जीवन के मूलतत्वों को हृदयंगम करने में समर्थ हुए तब से जीवन संगिनी का महत्व भी कुछ बढ़ा और तभी से इस वैधानिक मोल-भाव के समय कन्या की शिक्षा का अतिरिक्त प्रश्न भी सामने आने लगा; यद्यपि दहेज की प्रधानता अक्षुण्ण है। आज भी बहुत से लोग परदा-त्याग आदि सुधारों का विरोध करते हैं किंतु अपनी बला दूसरों के सिर थोपने के लिए कह देते हैं "क्या कहें, हमारी तो कुछ चलती नहीं। पिता जी पसंद नहीं करते। वे ही घर में बड़े हैं। दो चार वर्ष के ही हैं, उनका दिल क्यों दुखाया जाय"! जिनमें थोड़ा सा भी संघर्ष करने की हिम्मत नहीं है वे बड़े-बूढ़ों का नाम ढाल के रूप में इस तरह सामने रख देते हैं मानों वे उनके परलोक प्रयाण की राह देखते हों। कभी कभी उनकी यह पितृभक्ति देखकर हँसी भी आ जाती है। समाज के सुव्यवस्थित संचालन के लिये आवश्यक है कि छोटे, बड़ों का सम्मान करें और उनका अनुशासन माने; किन्तु साथ ही वृद्धों का भी कर्तव्य है कि वे युवकों के मार्ग में रोड़े न अटकायें। प्रायः देखा जाता है कि कुराह पर चलने वाले युवकों के माता-पिता भीतर ही भीतर अपने आँसू पी जाते हैं, उनका साहस सन्तान का नियन्त्रण करने में असफल हो जाता है। किंतु वे ही लोग सुधार के रास्ते पर चलने वाली संतति को अपनी मृत्यु की राह देखने के लिये विवश करते हैं।
अभी ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो समझते हैं कि परदा छोड़ने से स्त्रियाँ उच्छृंखल और अशिष्ट हो जायेंगी; किंतु यह धारणा भ्रान्त निकलेगी जब वे बिना परदे वाली अन्य बहिनों को देखेंगे। अपने घर में देखिये। पीहरके मुहल्ले में लड़की घूँघट नहीं करती और ससुराल के मुहल्ले में प्रविष्ट होते ही घूँघट खींच लेती है। पीहर में उच्छृंखल और असंयत रहती है? यदि ऐसा है तो फिर वहाँ भी उसे घूँघट में रहना चाहिये। ससुराल के मुहल्ले में पैर रखते ही शारीरिक चेष्टाओं में एक प्रकार