नारी आन्दोलन का परिणाम भी वही हुआ। पर्दा-निवारण, दहेज, विधवा-विवाह, स्त्रियों का सामाजिक सम्मान इन सब पर कहा बहुत गया, किया कम। और कहा भी जो कुछ गया वह इतने ऊँचे चढ़कर कि उसकी प्रतिध्वनि उन्हीं द्वारों से टकराकर लौट आयी जहां किरणें पहले से ही बिहार करने लगी थीं। समाज का वह अंग जो सब से अधिक अन्धकार में था, अन्धकार में ही रहा। फलतः आज भी हम वहीं के वहीं खड़े हैं।
हमारे समाज में नारियों की तीन श्रेणियां हैं। प्रथम उनकी जो अशिक्षित हैं, रूढ़ि प्रिय हैं, मेहनती हैं और अपनी अवस्था में सन्तुष्ट हैं, और इस सन्तोष का कारण है, उनकी गरीबी, उनकी अशिक्षा और उनके वंशगत संस्कार। अपने सुधार की चर्चा में इन्हें पापाचार दिखाई देता है। इस श्रेणी में अपनी आस्था के अनुसार धार्मिक भावना भी खूब है। दूसरी श्रेणी में वे देवियां हैं जिन्हें हम पाश्चात्य भाषा, वेश-भूषा, रहन-सहन तथा शिष्टाचार से अत्यधिक प्रभावित देखते हैं। यह वर्ग सम्भवतः अतीत के सभी कुछ का 'असामयिक अथवा अनावश्यक' मानकर आगे बढ़ता है। बुद्धि विकास इस वर्ग का खूब हुआ है। प्लेटफार्म पर भी यह वर्ग आगे आया है पर भारतीय नारी समाज तक न यह पहुँच सका और न पहुँचने की कोशिश इसने की। तीसरे वर्ग में पुरातन और आधुनिक का समन्वय है अथवा समन्वय की आकांक्षा है। इनकी वाणी कर्म से सामंजस्य चाहती है। अधिकार के लिये संघर्ष की अपेक्षा विनीत आग्रह पसन्द करती है। यह वर्ग भी प्लेटफार्म तक पहुँचा है और इसी ने समाज के निचले स्तर तक पहुँचने का प्रयत्न भी किया है।
मेरे ये लेख---कहने की आवश्यकता नहीं---द्वितीय वर्ग के लिये न उपयोगी हैं और न उसकी ऊँचाई से समाज को देखने वाले। इनका लक्ष्य प्रथम वर्ग की स्त्रियां मुख्यतः है और तृतीय वर्ग की सामान्यतः। इसी लिये अपनी पाठिकाओं के समान इन लेखों में न सज्जा है, न आलंकारिक सौन्दर्य। उनकी असंस्कृत वाणी के समान कथन में अनेक स्थानों पर पुनरावृत्ति भी होगी। आवृत्ति से बचना सामाजिक चर्चा में कठिन भी है। फिर भी एक बात आप को शायद मिले और वह है सात्विकता, उद्देश की निश्छल पवित्रता। और यही मेरे लिये परम सन्तोष की बात है।