नारी-समस्या मेरे इधर-उधर के बिखरे लेखों का संग्रह है । मेरे पति श्री किसनलालजी गोयनका के योरोप-प्रवास से लौटने पर स्थानीय मारवाड़ी समाज में जो भूचाल आया उसने जहां एक ओर मुझे कुछ करने को विवश किया वहां दूसरी ओर कुछ कहने का भी । करने का परिणाम तो न जाने क्या हुआ, कहने का परिणाम'नारी-समस्या' के रूप में आप सामने है ।
प्रस्तुत लेखों में प्रायः सभी सन् १९३६ से लेकर '४४ तक किसी न किसी पत्र-पत्रिका में प्रकाशित हो चुके हैं । इनमें से कुछ किन्हीं आक्षेप-परक लेखों के उत्तर में लिखे गये थे जिन्हें पुस्तकानुकूल बना लिया गया है; कुछ मेरे सामयिक भाषणों के लेख-वद्ध रूप हैं और कुछ स्वतन्त्र रूप से लिखे हैं । इन्हीं सब का एकत्रीकरण इस पुस्तक में है । अपने मूलरूप में ये निबन्ध मारवाड़ी समाज को उद्दिष्ट कर लिखे गये थे किन्तु राजस्थानी तथा अन्य हिन्दीभाषी बहिनों की अवस्था एवं समस्याओं में विशेष अन्तर नहीं है;अतः साधारण तौर में सभी हिन्दीभाषी बहिनों के उपयोग में आ सकते हैं आवश्यकतानुसार उन्हें अधिक व्यापक बनाने की चेष्टा की गई है और इस निमित्त कहीं-कहीं मूल लेखों में परिवर्तन भी करने पड़े हैं, तोभी राजस्थानी समाज का अधिक चित्रित हो जाना स्वाभाविक है ।
हमारा समाज एक महान संक्रान्ति काल से गुजर रहा है । कहा जाता है और प्रायः स्वीकार भी किया जाता है कि विश्व में घटित होने वाली प्रत्येक घटना का हमारे जीवन पर प्रभाव पड़ता है । विश्व का प्रत्येक भाग आज एक दूसरे से सम्बद्ध जो हो गया है । यह बात सत्य हो, तो भी हमारे समाज के एक छोटे से वर्ग तक सीमित है; वह वर्ग जिसे हम अभिजात वर्ग कहने के अभ्यस्त हो गये हैं । साधनों और सुविधाओं के कारण सारा प्रकाश आकर शहरों के कुछ थोड़े से परिवारों में बद्ध हो जाता है, जन-साधारण तक पहुँचने का उसे अवकाश नहीं ।