६७ हमारा पर्दा ऐसा करे कि वह ब्राह्मणों को दूसरों का मुंहताज न बनाकर स्वावलम्बी बनाये और ब्राह्मण कन्याओं का दासिया न बनाकर पंडिता बना दे जो हमारी कन्याओं को और हम को पढ़ाने तथा उपदेश देने का काम कर सकें न कि हमारे आराम का साधन बनकर गीत गाना, मेंहदी मॉडना और टेनिया लेकर इधर उधर घूमने का ही काम करे । यह ब्राह्मण जाति के और उनके साथ ही सारे समाज के पतन का कारण है । भविष्य में हमारा दान ब्राह्मण-कन्याओं को पढ़ाने में ही खर्च होना चाहिये । किन्तु केवल सभाएँ करने और व्याख्यान सुनने से कुछ नहीं होगा। हमें नियमित रूप से प्रतिदिन सामाजिक और राजनैतिक लेख पढ़ने चाहिये और उन पर विचार करना चाहिये । हम यह भी न समझे कि परदा छोड़ने पर तुरन्त ही हृदय में ज्ञान की दिव्य ज्योति जगमगाने लगेगी । हाँ, यह जरूर समझ सकेंगी कि देश के अन्य समाजों की स्त्रियों में हमारा क्या स्थान है। जब तक स्त्रिया परदा न छोड़ेंगी तब तक त्रिकाल में भी आत्म बल नहीं आ सकेगा। भारतवर्ष की प्राचीन संस्कृति में स्त्रियों का उच्च स्थान था। यह बात सर्वसम्मत है तो भी आज व्यवहार में भारतीय ललनाओं का स्थान अत्यन्त हीन है, यह बात अस्वीकार नहीं की जा सकती। उनके जीवन का प्रत्येक क्षेत्र दासता से भरा है। बाल्यावस्था से मृत्यु तक पुरुषों की अधीनता उनके जीवन का ध्येय है । उन्हें समाज में स्वतन्त्र स्थान नहीं है । पुरुष के सहारे उनका जीवन है । पुरुष के सहारे उनका विकास है और पुरुषों के सहारे उनकी स्वर्ग-प्राप्ति है । हमारी प्राचीन संस्कृति में यदि स्त्रियों के स्थान की उच्चता का गौरवपूर्ण उल्लेख है तो वर्तमान समय में हमारे पराक्लम्बन की पराकाष्ठा भी है। हमें आर्थिक स्वातन्त्र्य नहीं है, हमें सामाजिक स्वातन्त्र्य नहीं है और, हमें मरने की भी स्वतन्त्रता नहीं है । इस परतन्त्रता ने, परावलम्बी जीवन ने स्त्रीसमाज का निस्तेज बना दिया है; और समाज का आधा अंग प्रायः बेकारसा हो गया है !
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