हमारा पर्दा और बिगाड़ने वाले पुरुष ही होते हैं । लेकिन समाज की कुंजी वास्तव में स्त्रियों . के हाथ में रहती है । अविद्या के कारण वे इस रहस्य को नहीं समझ सकतीं । स्त्रियों के सहयोग के बिना समाज-सुधार हो ही नहीं सकता। आप स्वदेशी २ चिल्लाते रहिये, घर में विदेशी माल आता ही रहेगा । आप अछूतोद्धार करना चाहें भी तो क्या मज़ाल है जो किसी अछूत को आपके घर में आश्रय मिल सके । बाल-विवाह पर मी स्त्रिया ही अधिक जोर देती हैं । मृतक भोज से भी अभी हमारा मोह नहीं छूटा । अनमेल विवाह की भी स्त्रिया उतनी परवाह नहीं करती और न विधवा-विवाह पर ही जोर देती हैं । तभी सभाओं में प्रस्ताव पास होकर कागजों में ही रह जाते हैं, क्रिया के रूप में नहीं आ सकते । इसीलिये मैं कहती हूँ कि स्त्रियों की मदद के बिना समाज सुधार हो ही नहीं सकता। आज भी पुरुषों के मना करने पर सड़कों पर गीत गाये ही जाते हैं । लेकिन मेरी इन बातों से पुरुष समाज अपने को निर्दोष न समझे । अन्य समाजों की स्त्रिया जहाँ क्लब, सिनेमा, टेनिस आदि खेलों से दिल बहला लेती हैं वहा हमारे समाज की महिलाओं के मनोरंजन के लिए दूसरे साधन भी तो नहीं हैं । सुधार के नाम पर गीत बन्द कर देना तो उनके साथ अन्याय होगा। मैं तो चाहती हूँ कि गीत गाये जाय और खूब गाये जाय । हमारे गीतों में साहित्य छिपा है । उनमें सरसता है और अर्थ गाम्भीर्य है। यदि ये ही गीत कुछ परिमार्जित करके ताल-स्वर में गाये जायें तो हमारे लिए गौरव की चीज हो सकते है । लेकिन रास्ते पर चलते हुए गाना तो अत्यन्त भद्दी बात है और उसी प्रकार मृतक के पीछे ज़ोर ज़ोर से पुकारते हुए रास्तों पर रोना । हमारे सामने जिन सीता सावित्री आदि देवियों का आदर्श रखा जाता है वे न तो परदा करती थीं और न सड़कों पर राती गाती थीं । रोना गाना और हँसना सिर्फ रुढ़ि-पालन के लिये मत करिए । जो बात समाज के लिए हास्यास्पद हो उसको एकदम बन्द कर देना चाहिए। . पुरानी जीर्ण शीण निरुपयोगी रूढ़ियों को तोड़ने का काम हरएक आदमी नहीं कर सकता । इसके लिये आत्मबल, साहस और विचारों पर दृढ़ रहने की आवश्यकता होती है । कितनी ही बहिनें कहा करती हैं कि पहले अमुक से परदा छुड़ाइये फिर मैं भी छोड़ दूंगी। इसी प्रकार दूसरी तीसरी का नाम बतला देती है । यह तो बहानेबाजी, डरपोकपन और किमी प्रकार बात को टालना है। ऐसा करने से आप समाज को उन्नत नहीं बना सकतीं।
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