८२ नारी-समाज में जागृति डाला जाता है। चित्रों के साथ पत्रों के कालमों में लम्बी-लम्बी रिपोर्ट छपती हैं । प्रति मास पत्र-पत्रिकायें महिलाओं के उत्थान के सम्बन्ध में बड़े-बड़े विचारकों से लेख लिखवा कर छापती हैं पर नारी-उत्थान का छकड़ा आगे बढ़ने का नाम नहीं लेता। भारत की स्त्रिया--यदि उन्हें शहरों तक ही सीमित न मान लिया जाय-तो आज भी प्रस्तर-युग से आगे नहीं बढ़ पायी हैं । और इसका कारण क्या है ? आज की जाग्रत महिलाओं का एक बड़ा भाग अपनी समस्याओं के सुलझाव के लिये पश्चिम की ओर ताकता है। वह वहीं से प्रकाश चाहता है । यद्यपि यह प्रत्यक्ष सत्य है कि प्रकाश उधर से आता नहीं, उधर पहुँचकर विलीन अवश्य हो जाता है । इस परमुखापेक्षिता का परिणाम स्पष्ट है । योरोपीय सभ्यता की तड़क भड़क में पलीं और उसी के संस्कारों से प्रभावित महिलायें भारतीय ग्रामों की ओर जा पृथ्वी की छाती पर फाड़ों के समान उठकर सड़ रहे हैं ताकने का साहस तक नहीं कर पातीं ! निर्धन, अशिक्षित बहनों के पास जाते उन्हें भय होता है । मैं तो समझती हूँ कि हमारी बहुतसी सुधारक बढ्नों में भारत के सच्चे कुत्सित स्वरूप की ओर ताकने का साहस तक नहीं है । कल्पना कीजिये उस परिवार की जिसके पास गृह शब्द पर व्यङ्ग्य करता हुआ अधनंगा मेोपड़ा है। चारों ओर सड़ते पानी और धूरों की दुर्गन्ध है । पिचके गालों, बाहर निकले दाँतों, और बिखरे केशों से पिशाचिनी का मर्त्य रूप उपस्थित करती 'पेठ ढके तो पीठ खुली और पीट ढके तो पेठ खुला' वाली जर्जर शत-शत छिद्रों से झुर्रियों का परिचय देती हुई ओढ़नी लपेटे धूल और मैल से सनी, लकड़ी के सहारे टिकी झुकी कमर वाली गृह रानी, और उसके पास नाली के कीड़ों से घिनौने नंग-धडंग काले कलूटे, पेट पिचकाये बच्चे ! यौवन का कभी उस गृहरानी की ओर ताकने का साहस न हुआ होगा । प्रारम्भ से ही जरा ने उसका अधिकार छीन लिया। चित्र करुण है किन्तु यदि भारतमाता के चित्र की कल्पना की जाय तो क्या वह चित्र ठीक ऐसा ही न होगा ? ऐसे परिवारों में जाकर अपना यौवन दान कर स्वयं वार्धक्य मोल ले लेने का साहस रखने वाली महिलायें ही वस्तुत: कुछ कर सकेंगी। अन्य देशों में ऐसा हुआ है । इस देश में भी बौद्धकाल में ऐसा हुआ है । अनेकां कुमारियों ने आजीवन सेवाव्रत लेकर अपनी तपोनिष्ठा से अपना सन्देश सातसमुद्र पार पहुँचाया । और यह फिर होगा जिस दिन भारत की मानवी अपने का उपभोग्य वस्तु न समझकर पुरुषों से भिन्न अपने व्यक्तित्व का अनुभव कर उसे समष्टि के लिये आहुत कर देने का बल संचित कर लेगी।
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