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नाट्यसम्भव।
नारदजी जाते हैं और दूसरी ओर से नमुचि तथा दैत्यनारियों के साथ बलि)
रङ्गशाला का परदा गिरता है।
इति अङ्कावतार।
सातवां दृश्य।
(स्थान सुधर्म्मा सभा)*[१]
(इन्द्रादिक देवता आपनेर स्थान पर बैठे हैं)
इन्द्र। महामुनि भरताचार्य्य के इस सजीव नाटक का क्या परिणाम होगा, कुछ समझ नहीं पड़ता। यद्यपि लोग इंसे निरा नाटक बतलाते हैं, जो अभी भरत ने दिखलाया है, किन्तु हजार समझाने पर भी चित्त इसे निरा रूपक नहीं स्वीकार करता। (सोच कर) किन्तु यह क्या। यदि इसे रूपक न माने तो क्या माने ? यहां के रङ्गस्थल में बलि, नमुचि, वजदंष्ट्र, नारद और इन्द्राणी का आना क्योंकर सम्भव है? हा! कुछ समझ नहीं पड़ता कि आज भरत मुनि ने कैसा इन्द्रजाल दर्साया!
- ↑ * अङ्कावतार के अभिनय के समय जिस प्रकार सब देवता बैठे थे, उसी भांति बैठे हों, और वहीं पर इस सातवें दृश्य का अभिनय हो।