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नाट्यसम्भव।

सबै ताकि उर सूल चलावत, दयान आवत नेक।
हा विधिना विरहिनी अभागी मैंही जग में एक॥
इन्द्र। नहीं प्रिये! दूसरा अभागा मैंभी अभी जीता हूं

(लम्बी सांस लेता है)

(विरहिनियों कासा भेस बनाए दैत्यनारियों से घिरी हुई इन्द्राणी आती है, और उसके पीछे २ सिर झुकाए हुए नमुचि)

इन्द्राणी। देवर्षि! मैं आपके घरणों में प्रणाम करती हूं।

(सब देत्यनारी सिर झुकाती हैं)

नारद। पुलोमजे! चिरससिनी भव।

(इन्द्राणी को देखतेही इन्द्र बावला हो आसन से उठ खड़ा होता है और वृहस्पति उसका हाथ थाम कर बैठाते हैं)

वृहस्पति। देवेन्द्र! सावधान होवो! यह भरताचार्य्य की ज्वलन्त कृति-नाटक है।

इन्द्र। (बैठकर) हा! पुलोमजे! यह दृश्य क्या सत्य है! क्या देवर्षि इसी भांति तुम्हारा उद्धार करेंगे?

नारद। इन्द्राणी। तेरा यहां किसी प्रकार अपमान तो नहीं हुआ?

इन्द्राणी। केवल पतिवियोग और स्वर्ग से यहां लाई जाकर अवरुद्ध रहने के अतिरिक्त और मेरा किसीने कुछ भी अपमान नहीं किया।

बलि। (नारद से) अब तो आप सन्तुष्ट हुए होंगे।