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नाट्यसम्भव।


पारा पिलाया है कि किसीके कानों पर जूं तक नहीं रेंगती। (चारों ओर देखकर) संसार में जब जब जिस २ देश की उन्नति हुई, तब तब उस उस देश के साहित्य के कारण। पर हाय! कैसी लज्जा की बात है कि जिस साहित्य के प्रधान अङ्ग नाटक से यह देश एक समय उन्नति की सीमा लांघ कर भूमंडल के सभी देशों का शिक्षागुरू बना था, आज उसीकी ऐसी दुर्दशा हो और वहीं के निवासी आंखों पर पट्टी बांधे हुए रसातल को चले जाते हैं। (खेद नाट्य करता है) सभी कोई इस बात को मुक्त कंठ से स्वीकार करैंगे कि यह अलौकिक गुण नाटकही में है कि जिसके द्वारा अनेक विभिन्न समाज औ विभिन्न प्रकृति के लोगों का मन एक रसमय हो जाता है। चाहे कोई कैसीही प्रकृति का क्यों न हो, पर नाटक से उसकी मति जिधर चाहे उधर फेरी जा सकती और जैसा चाहे वैसा काम निकाल लिया जा सकता है। (घूमकर) और देखो, नाटक से बढ़कर कोई ऐसा दूसरा उपाय नहीं है, जिससे सर्वसाधारण को सामाजिक-दशा का वर्तमान चित्र दिखाकर उसका पूरा पूरा सुधार किया जाय।
किन्तु हा! मूढ़ता से जकड़े हुए हिन्दुओं के करम में न जाने अभी कौनसा दुःख भोगना बदा है कि अपनी