भूमिका।
सन् १८९१ ई॰ में जब हम द्वितीय बार कलकत्ते गए थे, इस "नाट्यसम्भव" रूपक का प्रादुर्भाव उसी समय कलकत्ते मेंही हुआ था। यह भी कैसा अपूर्व समय था और उचितवक्ता सम्पादक पण्डित दुर्गाप्रसाद मिश्र, सारसुधानिधि सम्पादक पण्डित सदानन्द मिश्र, धर्मदिवाकर-सम्पादक पण्डित देवीसहायजी मिश्र आदि विद्वान मित्रवरों के सत्संग से जो आनन्द प्राप्त हुआ था, वह फिर कई बार कलकते जाने पर न मिला। उन्हीं दिनों प्रायः 'नाटक' देखने भी हमलोग जाया करते थे। सो एक दिन 'स्टार' थियेटर में एक ऐसी अच्छी नक़ल देखने में आई कि जो चित्त में चुभती गई और उसीके मूल पर हमने इस "नाट्यसम्भव" रूपक को लिखा, जिसे उपर्युक्त मित्रमण्डली ने सराहा और पसन्द किया।
फिर इस रूपक की खबर बिहार प्रान्त के सूर्यपुराधिपति राजा राजराजेश्वरी प्रसादसिंह बहादुर ने सुनी और जब वे आरा में आए तो उन्होंने हमें बुला कर इस 'रूपक' को आद्यन्त सुना। इसपर वे बहुतही मुग्ध हुए और इसकी कापी उसी समय बाबू रामदीनसिंह के हवाले की। किन्तु खेदपूर्वक कहना पड़ता है कि जब उक्त राजा साहब स्वर्ग सिधार गए और नाटक खङ्गविलास प्रेस सेवन करता रहा, तो हम इसकी कापी वहां से ले आए और बस्ते में बांध कर पटक दिया।
आज बहुत दिनों पीछे यह 'रूपक' मित्रवर वावू देवकीनन्दनजी खत्री के द्वारा छप कर हिन्दीरसिकों के सन्मुख उपस्थित होता है और हम भी इसे स्वर्गीय राजा राजराजेश्वरी प्रसाद सिंह बहादुर की अमर आत्मा को समर्पित कर भूमिका समाप्त करते हैं।
श्रीकिशारीलालगोस्वामी
काशी।