यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५७
नाट्यसम्भव।
छठवां दृश्य।
परदा उठता है।
(स्थाम नन्दनवन-कुसुम सरोवर)
(सरोवर के तीर सिर झुकाये इन्द्र उदास बैठा है)
इन्द्र। हाय! अब तो हृदय किसी शांति शान्त नहीं होता। जितना इसे ढाढ़स देते हैं उतनाही यह अधीर हुआ जाता है। क्या कहें ? कहां जायं? किस्म कहैं? यह ऐसी ठंढी आग है कि इसे कोई जल्दी बुझाही नहीं सकता। क्योंकि-
दोहा।
प्रियबिछोह की भांति जग और दुसह दुख नाहिं।
समुझाये पुनि होत बहु विकल प्रान तन माहिं॥
(ठहरफर) ऐं! इतना विलंव भया, अभी तक भरत मुनि नहीं आये। क्या उन्होंने केवल हमें ढाढ़स देने के लिये कोरी बातें बनाई थी ? नहीं नहीं, यह तो कभी हाही नहीं सकता कि वह खाली बढ़ावा देकर टाल वाल कर गये हों। ऐं। पिंगाक्ष ने तोआकर कहा था कि मुनिवर शीघ्र आवैगे पर इतनी! देर क्यों हुई?
(द्वारपाल आता है)