यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५५
नाट्यसम्भव।

तुम्हारा सब खेद दूर होजायगा, अब सोच न करो। क्योंकि गुरुजी शीघ्र आते हैं।

दमनक। (मन में) लो! फिर एक बखेड़ा लगान। (प्रगट)। इन्द्र को हम कहाँ ढूंढते फिरेंगे?

भरत। इसकी चिन्ता न कर! इस स्वर्गलोक के प्रभाव से तू आप ठिकाने पहुंच जायगा (रैवतक से) अरे रैवतक! तू हमारे सङ्ग चल। नाटक खेलने का प्रबंध करें। (दननक से) और सुनरे हठी! इतने बड़े वर्गसाम्राज्य के स्वामी सुरेन्द्र के सानने दिठाई न कीनादेख,सावधान! यह स्वर्ग है, कुछ तेरा आश्रम नहीं है, इसलिये सावधान !!

(रैवतफ के सङ्ग भरतमुनि जाते हैं)

दमनक। हाय न जाने हमारी कोनसी ग्रहदशा आई है कि अभी तक इससे अपना पीछा नहीं छूटता। मुनियों के पास रहना क्या हंसी ठठ्ठा है। आज दौड़ते दौड़ते टांग टूट गई, पर अभी तक छुट्टी न मिली मरे हमारे पैर में सनीचर माघुसे हैं क्या। हा! इन्द्र तो अपनी स्त्री के लिये रो रहा है पर हम क्यों चने के सङ्ग घुन की भांति पीसे गए? वाह रे बिधाता! शाबास! शाबास! सारे सरीर के जोड़ उखड़े जाते हैं (भूमि में लोट पोट करता है) नसर तो चटक रही हैं चलें क्या पत्थर? पर अब किया क्या जाय!