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नाट्यसम्भव।

भरत। (आश्चर्य्य से) ऐं! ऐसा क्यों हुआ? (सोचकर) हां! अब समझे। उस महा तेजोमय मूर्त्ति के आगे तुम लोगों की सब इन्द्रियां शिथिल होगई होंगी!

रेवतक। ठीक है। इसीसे हमलोगों की सब सुधि बुधि बिसर गई होगी।

दमनक। क्यों गुरूजी आपके हाथ में यह कौन पोथी है?

भरत। बेटा। माता वागीश्वरीदेवी ने यह नाट्य विद्या की पुस्तक दी है।

दमनक। नाट्यविद्या किसे कहते हैं?

भरत। किसी कौतुक को प्रत्यक्ष दिखला कर लोगों की रुचि उस ओर फेरना।

रैवतक। यह तो कुछ भी समझ में न आया।

भरत। अभी देखना कि इसमें कैसा खेल तमाशा भरा है।

दमनक। ऐं। खेल तमाशा! नाटक! वाह यह क्या है गुरूजी! कुछ समझ में नहीं आता।

भरत। पहिले इसका कौतुक देख तब पीछे धीरे धीरे समझियो।

दमनक। तो गुरूजी! पहिले हमें पढ़ाकर तब दूसरे को बताइयेगा।

भरत। (हंसकर) हां हां। पहिले तूही पढ़ियो।

(नेपथ्य में)