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नाट्यसम्भव।

सरस्वती। वत्स! यह ग्रन्थ साहित्य के दूसरे अंग नाटक विद्या की निधि है। इसमें समस्त रस से (१) भरे हुए रूपक (२) और उपरूपकों का (३) वर्णन किया गया है। अधिक कहने का कोई प्रयोजन नहीं है। इस पुस्तक को एक वेर अवलोकन करनेही सेतू इस विद्या में निपुण होजायगा। और देख! रंगभूमि में इन रूपकों के अभिनय करने से संसार में कौन ऐसा महामूढ़ है जो मोहित न होगा? बेटा! इन्द्र तो क्या, जगदीश्वर भी इससे प्रसन्न होकर चारों पदार्थ देते हैं। नाट्यशास्त्र की अनन्त महिमा शास्त्रों में गाई गई है, सुन:-


(१) शृङ्गार, हास्य, करुणा, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स, अद्भुत, शान्त, वात्सल्प, सख्य, भक्ति, आनन्दादि त्रयोदश रसाः। (सुबन्धुः)

(२) नाटकमथ प्रकरणं, भाणव्यायोगसमवकारडिमाः।
ईहामृगाङ्कवीथ्यः, ग्रहसननिति रूपकाणि दश॥

(साहित्यदर्पण)

(३) नाटिका त्रोटक गोष्ठी सहकं नाट्यगसकम्।
प्रस्यानालाप्यकाव्यानि नखणं रासकं तथा॥
संलापकं श्रीगदितं शिल्पकं तु विलासिका।
दुर्मल्लिका प्रकरणिका हल्लीशी भाणिका तथा॥
अष्टादशभिधान्येव रूपकाणि निगद्यते॥

(सुबन्धुः)