रैवतक। तुम्हारे जान यह सहज होगी, पर हमें तो पहाड़ सी दिखाई देती है।
दमनक। गुरु जी ने कहाही है कि कोई विद्या हो, उसका पढ़ना और लोहे के घने का चबाना बराबर है।
भरत। हां ऐसा तो हुई है। और देख तो सही; इस विद्या के कैसे२ माहात्म्य महात्माओं ने कहे हैं।
रैवतक। हां हां गुरुजी! अब इसी की थोड़ी चर्चा होनी चाहिये।
दमनक। हमारी भी यही इच्छा है।
भरत। अच्छा, तो ध्यान देकर तुम दोनों सुनो।
(दोनो सावधानता नाटय करते हैं)
(१) अलभ मनुज तन, तासु मध्य विद्या दुर्लभ अति।
विद्या हू पुनि भये सुदुर्लभ कविता मधि गति॥
कविता हू को पाइ शक्ति बहु दुर्लभ जन को।
शक्ति पाय मन चाहत ना धन अखिल भुवन को।
रैवतक। ठीक है गुरूजी! अब इसे न भूलैंगे। और यह भी तो आपने पढ़ाया है-
(१) नरत्वं दुर्लभं लोके विद्या तत्र सुदुर्लभा।
कवित्वं दुर्लभं तत्र शक्तिस्तत्र सुदुर्लभा॥
(अग्निपुराणे)
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