(नेपथ्य में)
"जरा आइना लेकर अपना मुंह तो देख मल्लू।"
(सुनकर संब एक दूसरे का मुंह देखते हैं)
भरत। क्यों बच्चा! अभी पेट भरा कि नहीं, या कुछ और फल चखने की इच्छा है?
रैवतक। अप्सराओं के पाने की लालसा अभी मिटी कि नहीं। (मन में) इस मूर्ख के कारण कहीं हमलोगों के सिर कोई आफत न आवै।
(नेपथ्य में अट्टहास्य के संग)
हमलोग ऐसी पत्थर की नहीं हैं कि मानसिक अपराध के लिये शाप देती फिरें।
(सब कान लगा कर सुनते हैं)
दमनक। (डर कर आश्चर्य् से) क्यों गुरूजी। आप तो तपस्या से तीनों काल की बातें जान लेते हैं, पर इन स्त्रियों ने हमारे मन का भेद कैसे जान लिया?
भरत। बेटा! यह देवलोक है। यहां के निवासी हस्तामलक की भांति त्रिकाल की बातें जान लेते हैं।
दमनक। तो गुरूजी! "हम अब सङ्गीत साहित्य छोड़कर वेद पढ़ेंगे।
रैवतक। (जल्दी से) क्या क्या?
भरत। इसलिए कि जिसमें यज्ञ करके स्वर्ग को लूटलें। क्यों?