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नाट्यसम्भव।

रैवतक। अरे! गुरुजी आ पहुंचे। चलें पूजा की सामग्री सँजोवैं।

(लकड़ी औ फूलों का चंगेर उठाता है)

दमनक। देखो भाई! गुरुजी से कुछ कहना सुन्ना मत। समझे न!

रैवतक। हम क्या ऐसे छिछोरे हैं जो इधर की उधर लगाया करैंगे। पर फिर कभी ऐसी ऊट पटाँग बात मत बोलना। (गया)

दमनक। इसकी नटखटी तो देखो! हमारे ऊपर दबाव डालता है। (नदी में स्नान कर हाथ में कमंडल लिये भरत मुनि आते हैं)

भरत। (दमनक की ओर देख फर) क्यारे दमनक! आज तू इतना उदास क्यों है रे! किसी से कुछ कहासुनी तो नहीं भई। ऐं।

दमनक। (मन का भेद छिपा कर) कुछ तो नहीं, हां आज आप सवेरे से कहां पधारे थे? देखिये, दोपर हुआ चाहता है (मन में) खोजते र हमारी टांग टूट गई।

भरत। तो इससे क्या?

दमनक। (मन में) मारे भूख के जान निकल रही है और कहते हैं, इससे क्या (प्रगट) यही कि आपने कहा है कि "मध्यान्हे भोजनं कुर्यात्" अर्थात् दोपर तक