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नाट्यसम्भव।


इन्द्र। (मन में) ऐं! ऐसा भी कोई उपाय है कि जिससे अमर लोग भी मर सकैं? हा! इस विरह की वेदना से तो मौत रोगुनी सुखदाई है। (प्रगट)


दोहा।
जल बिनज्योंजलचर दुखी, रवि बिन सकल जहान।
त्यों बिन सची, मची इहां, बिरहानल धुंधुकान॥

भरत। हे देवेश! अपने मन को व्यर्थ शोकसागर में डुबाने से हानि छोड़ लाभ कुछ भी नहीं है। इस लिये अब कलेजे पर पत्थर रखकर ऐसा यत्न करो, जिसमें शीघ्रही शची देवी प्रास हो। (कुछ सोचकर) अच्छा देखो! हम अपने भरसक तुम्हारे मन बहलाने का कोई उपाय करेंगे (मन में) हा। बिचारे इन्द्र की दशा देखकर जबकि हमारा भी धीरज भागा जाता है तो इसे हम कहां तक समझा? सच है, प्यारी वस्तु का बिछोह बहुतही दुखदाई होता है। जिसके कलेजे पर यह चोट लगती है, उसीका जी जानता है। बहै सहस्र नेत्र सोय, नीर, धीर छाडि के।

बहै सहस्र नेत्र सो य, नीर, धीर छाड़ि कै।
दहै अतीव सांत चित्त हीय गेह फाड़ि कै॥
तथापि जो कृपा करैं सरस्वती तबै इहां।
वहै अन्दर-धार मोद,मोह मेटि कै महा ॥

इन्द्र। मुनिवर! हम भी यही चाहते हैं कि किसी भांति