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नाट्यसंभव।


दोनों। (एक सङ्ग) (राग ईमन कल्यान)

अहा यह नन्दन वन सुखदाई।

अखिल भुवन-सुखमा-समूह लहि पाई बहुरि बड़ाही।
जहां विहार करने करन जन कोटिन करत उपाई।
पै पावत कोऊ या सुखकों जनम अनेक गवांई
यह सदा रितुराज बिराजत छाजत मदन सहाई।
सीतल मन्द सुगन्ध पौन जहं हरत खेद् समुदाई॥
कंचन भूमि रतनमय तरवर नव पल्लव उमगाई।
झुके भूमि भरि भारनसोंनिज संपतिगरव मिटाई॥
चहुं मंदार उदार कल्पतकर चंदन सुरभिबढाई।
पारिजात संतान विताननिसोभित अति छबि छाई॥
फूलेफले अघाय सबै तरु नख सिखलों सरसाई।
भरे लेत मन मानो झारिन देववधू नियराई॥
बिकसीं लता सुमन-मन-मोहनि तरुन तरुन लपटाई।
मधुकर-निकर झुंड झनकारनि रस बस रहे लुभाई
नाचैं मोर मोद मनमाने कोकिल कल किलकाई।
बिहरत हरत चित्त पंछीगन चहचहात हरखाई।
कंचन हरिन किलोल करत बहु साखामृग अधिकाई॥
मधुर बैन बोलत सव मिलिजुलि मन नहिं नेक सकाई
रतन जड़ित सोपान मनोहर देखत बनत निकाई।
सुधा सरोवर अति छवि छाजत निर्मल नीर बहाई॥
कनक कंज कल्हार कुसेसय इन्दीवर मनभाई।