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मनोहर, अदभुत, आश्चर्यजनक, कौतूहलवर्द्धक और प्रेम के सजीव चित्र से अङ्कित हैं, इस विषय में हम अपनी और से कुछ न कह कर केवल एक "तारा" उपन्यास पर जो सुप्रसिद्ध "सुदर्शन" सम्पादक श्रीयुत् पण्डित माधवप्रसादजी मिश्र ने अपनी निरपेक्ष सम्मति निज पत्र द्वारा प्रगट की है, उसी चीठी को हम नीचे छाप देते हैं, जिसे ध्यानपूर्वक पढ़कर उपन्यास प्रेमी जन "स्थालीपुलाकन्यायेन" स्वयं इस बात का निर्णय कर लेंगे कि हमारे अन्यान्य उपन्यास भी कम होगें।

श्रीयुक्त पंडित माधवप्रसादजी मिश्र के पत्र की पूरी नक़ल।

श्रीयुक्त पंडित किशोरीलाल गोस्वामी जी नमस्कार!


महाशय!
आपकी "तारा" के अवलोकन से जो मुझे आनन्द हुआ है। उसे प्रकाश किये बिना रहा नहीं जाता। हिन्दी इतिहासरहित उपन्यासान्धकार में ज्योतिर्मयी "तारा" अपनी ओर रसिकों का चित्त आकर्षण करेगी, इममें सन्देह नहीं। इसके तीसरे भाग में आर्ता, राठौरनन्दिनी ताराबाई की उस पत्रिका के पाठ से, जो उसने वीराङ्गज राजसिंह के नाम में लिखी थी, आपकी काव्यकुशलता और मार्मिकता का भलीभांति परिचय मिलता है। इस प्रकार की ओजस्विनी एवं सरस कविता न केवल मनोविनोद ही का कारण है, प्रत्युत इसने आत्मविस्मृत देश का उपकार भी हो सकता है। मुझे भरोसा है कि यह पत्रिका हिन्दी साहित्य में प्रथम होने पर भी अन्तिम न होगी। इसी प्रकार और रचना भी देखने में आवेगी।

भवदीय-

माधवप्रसाद मिश्र।

ये पुस्तके नीचे लिख ठिकानों पर मिलेंगी:-

श्रीकिशारीलालगोस्वामी,

सम्पादक "उपन्यास" मासिक पुस्तक

ज्ञानवापी-बनारस।

मैनेजर लहरी प्रेम, काशी और फ्रेण्ड एण्ड कम्पनी, मथुरा।