यह तो इतिहास सिद्ध ही है कि गुजरात के राय कर्ण की स्त्रियों तथा पुत्रियाँ पकड़कर दिल्ली भेज दी गई थी।[१] अलाउद्दीन के बहुत सी बेगमें थी, यह भी प्रमाणित है। बरानी लिखता है कि उसे प्रति वर्ष तीन या चार संताने होती थीं। हिंदी में हरमीर विषयक काव्यों में अलाउद्दीन की मरहट्ठी बेगम का उल्लेख है। उनमें इस मरहट्ठी बेगम का कोई और विवरण नहीं मिलता। केवल जोधराज़कृत 'हम्मीर रासो' में उसका नाम 'रूपविचित्रा' कहा गया है।[२] क्या यह मरहट्ठी बेगम छिताई थी?
देवगिरि के राजा रामदेव के कन्या अवश्य थी, पर क्या एकाधिक कन्याएँ थीं–पता नहीं, प्रयोजन भी नहीं। जियाउद्दीन बरानी लिखता है कि संवत् १३७५ वि० में दिल्ली के सुलतान कुतुबुद्दीन ने देवगिरि जीतकर रामदेव के जामाता हरपालदेव को (जो उस समय वहाँ का राजा था) मरवा डाला और उसकी खाल खिंचवाकर दर्शन के लिये उसे किले के फाटक पर टँगवा दिया।[३] अब्दुल्ला वस्साफ़कृत ‘तज्जियातुल् अंसार में लिखा है कि बुद्धिमान राय (रामदेव) ने प्राण-रक्षार्थ अपनी कन्या का विवाह सुलतान से कर दिया।[४] तज्जियातुल् अंसार' की रचना संवत् १३५७ से १३८५ वि० के योग हुई जिसमें अलाउद्दीन का शासन-काल भी आ जाता है।
संवत् १६५३ वि० में मयूरगिरि के राजा नारायणशाह की आज्ञा से रुद्र कवि ने संस्कृत में राष्ट्रौढ़वश महाकाव्य रचा। उसके आरंभ में उसने लिखा है कि मयूरगिरि के राठौड़ कन्नौज के राठौड़ो के ही वंशज है। कन्नौज के राजा सिंहण के चार पुत्र थे। सिंहण के बाद बड़ा लड़का जाख राज तो कन्नौज का स्वामी हुआ और शेष तीनों हरिहर, यशस्वान् और सोहड़ गुजरात के राजा जयसिंह का सेवा में चले आए। हरिहर को भगवान शिव की कृपा से ईडर का किला मिल गया और वह वहीं बस गया। पर यशस्वान् और सोहड़ कन्नौज लौट गए। वे वहाँ से विजय के लिये
फिर निकले और दक्षिण हो आए। सोहड़ ने पिप्पलग्राम जीतकर वहाँ राज्य स्थापित कर लिया और यशस्वान् देवगिरि के राजा रामदेव की कन्या से विवाह करके देवगिरि में हो रहने लगा। देवगिरि के किले में