१५० मागरीमचारिणी पत्रिका भी बनती और बिकती रही होगी। इससे दूसरा अनुमान यह होता है कि कुछ 'बुधों' ने 'संधिम' का नए ढंग से विकास किया: उन्होंने 'संधिम को सहायता से नए प्रकार के नाटकों-छाया नाटकों का सूत्रपात किया। यद्रपं क्रियते बुधः' बहुत ही काम का सूत्र है। छाया नाटकों को भाजीविका बना लेनेवाले घोरे धीरे 'रूपोपजीवी' कहलाने लगे। 'रूपोप जीवन' का वास्तविक अर्थ क्या? 'महाभारत' के टीकाकार नीलकंठ 'रूपोपजीवन' की यह टीका कर गए हैं- _____ोपजीवन जालमटपिकेति दाक्षिणात्येषु प्रसिद्ध', यत्र सूक्ष्म वस्त्रं व्यवधाय चर्ममयेराकार राजामात्यादीनां चर्या प्रदीत । ____ अर्थात् दाक्षिणात्यों में रूपोपजीवन या जालमंडपिका प्रसिद्ध है। उसमें एक सूक्ष्म वस्त्र (परदा, पट)का व्यवधान किया जाता है (सामा- जिकों के सामने पक परदा टाँगा जाता है ) और ( परदे के पीछे से ) गजा, अमान्य प्रादि की चर्या दिखाई जाती है ('व्यवधाय' के बल पर 'परदे के पोछे से', यह संकेत लिया गया है।)। अब तो 'संघिम और 'संजीव को परस्पर अनुग्राहकता और 'संधिम' में छाया नाटक का इंगित स्पष्ट हो गया होगा। आजकल के 'मैजिक लैन्टर्न शो' से छाया नाटक को कुछ तुलना हो सकती है। इस प्रकार के नाटक से मिलती जुलती एक चीज और भी है। गुजरात प्रांत को स्त्रियाँ माथे पर बक्स रखे घूमती रहती है और एकाध पैसा लेकर उसके भीतर के चित्र बच्चों को दिखाया करती हैं। उन्हें दिखलाते समय कहती खलती है-देवत्र भैया देवख, बंबई कलकत्ता देक्स, आदि । 'कामसूत्र' कार वात्स्यायन ने भी एक प्रकार के 'पाख्यानपट' का उल्लेख किया है। बौद्धकालिक 'यमपट' भी यही वस्तु है । 'मुद्राराक्षस' में भी इसका उल्लेख है- तहिं जमपड पसारिश्र पट तालि गीयादि गाइदुम् । 'यमपट' नाम क्यों पड़ा। प्रारंभ में संसार की असारता दिखाने के लिये हो बौद्ध भिक्षु कुछ चित्र दिखाते थे, जिनके अंत में यमराज-सभा दिखाई जाती थी। 'मुद्राराक्षस' से ऐसा व्यक्त होता है। वहाँ 'निपुणक' नामक चर 'यमपट' लिये आता है और चाणक्य के शिष्य से उसका वार्तालाप होता है। उसी प्रसंग में निपुणक कहता है-मुझे भीतर जाने दो। मैं तुम्हारे स्वामी के सामने यमपट फैलाऊँ और उन्हें सदाचार को शिक्षा हूँ। अतः स्पष्ट है कि 'यमपट' बौद्धों का सदाचार-शिक्षा का साधन था। भाजका भी बाजार में नरकों के चित्र विकते हैं।
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