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नव-निधि


मुझे बहुत दिनों से आपके दर्शनों की आकांक्षा थी। आज वह सुअवसर भी मिल गया। अब मेरा जन्म सफल हुआ।

पण्डित देवदत्त की आँखों में आँसू भर आये। पैतृक प्रतिष्ठा का अभिमान उनके हृदय का कोमल भाग था।

वह दीनता जो उनके मुख पर छाई हुई थी, थोड़ी देर के लिए विदा हो गई। वे गम्भीर भाव धारण करके बोले -- यह आपका अनुग्रह है जो ऐसा कहते हैं। नहीं तो मुझ जैसे कपूत में तो इतनी भी योग्यता नहीं है जो अपने को उन लोगों की सन्तति कह सकूँ। इतने में नौकरों ने आँगन में फ़र्श बिछा दिया। दोनों आदमी उसपर बैठे और बातें होने लगी, वे बातें जिनका प्रत्येक शब्द पंडितजी के मुख को इस तरह प्रफुल्लित कर रहा था जिस तरह प्रातःकाल की वायु फूलों को खिला देती है। पण्डितजी के पितामह ने नवयुवक ठाकुर के पितामह को पच्चीस सहस्र रूपये कर्ज दिये थे ठाकुर अब गया में जाकर अपने पूर्वजों का श्राद्ध करना चाहता था, इसलिए ज़रूरी था कि उसके जिम्मे जो कुछ ऋण हो, उसकी एक एक कौड़ी चुका दी जाय। ठाकुर को पुराने बही खाते में यह ऋण दिखाई दिया। पच्चीस के अब पचहत्तर हजार हो चुके थे। वही ऋण चुका देने के लिए ठाकुर आया था। धर्म ही वह शक्ति है जो अन्तःकरण में ओजस्वी विचारों को पैदा करती है। हाँ, इस विचार को कार्य में लाने के लिए एक पवित्र और बलवान् आत्मा की आवश्यकता है। नहीं तो वे ही विचार क्रूर और पाप मय हो जाते हैं। अन्त में ठाकुर ने पूछा -- आपके पास तो वे चिट्टियाँ होंगी ?

देवदत्त का दिल बैठ गया वे सँभलकर बोले -- सम्भवतः हों। कुछ कह नहीं सकते।

ठाकुर ने लापरवाही से कहा ढूँढ़िए, यदि मिल जायॅ तो हम लेते जायॅगे।

पण्डित देवदत्त उठे, लेकिन हृदय ठण्डा हो रहा था। शंका होने लगी कि कहीं भाग्य हरे बाग़ न दिखा रहा हो। कौन जाने वह पुर्जा जलकर राख हो गया या नहीं। यदि न मिला तो रुपये कौन देता है। शोक कि दूध का प्याला सामने आकर हाथ से छूटा जाता है ! -- हे भगवान् ! वह पत्री मिल जाय। हमने अनेक कष्ट पाये हैं, अब हम पर दया करो। इस प्रकार आशा और निराशा की दशा में देवदत्त भीतर गये और दीया के टिमटिमाते हुए