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नव-निधि

वही अमावास्या की रात्रि थी। किन्तु दीपमालिका अपनी अल्प जीवनी समाप्त कर चुकी थी। चारों ओर जुआरियों के लिए यह शकुन की रात्रि थी, क्योंकि आज की हार साल भर की हार होती है। लक्ष्मी के आगमन की धूम थी। कौड़ियों पर अशर्फियाँ लुट रही थीं। भठियों में शराब के बदले पानी बिक रहा था। पण्डित देवदत्त के अतिरिक्त करने में कोई ऐसा मनुष्य नहीं था, जो कि दूसरों की कमाई समेटने की धुन में न हो। आज भोर से ही गिरिजा की अवस्था शोचनीय थी। विषम ज्वर उसे एक-एक क्षण में मूर्च्छित कर रहा था। एकाएक उसने चौंककर आँखें खोली और अत्यन्त क्षीण स्वर में कहा-आज तो दिवाली है।

गिरिजा ने आँसू-भरी दृष्टि से इधर उधर देखकर कहा-हमारे घर में क्या दीपक न जलेंगे ?

देवदत्त फूट-फूटकर रोने लगा। गिरिजा ने फिर उसी स्वर में कहा--देखो, आज बरस-चरस के दिन घर अँधेरा रह गया। मुझे उठा दो, मैं भी अपने घर में दीये जलाऊँगी।

ये बातें देवदत्त के हृदय में चुभी जाती थीं। मनुष्य की अन्तिम घड़ी लालसाओं और भावनाओं में व्यतीत होती है।

इस नगर में लाला शंकरदास अच्छे प्रसिद्ध वैद्य थे। अपने प्राण-संजीवन औषधालय में दवाओं के स्थान पर छापने का प्रेस रखे हुये थे। दवाइयाँ कम बनती थीं, किन्तु इस्तहार अधिक प्रकाशित होते थे।

वे कहा करते थे कि बीमारी केवल रईसों का ढकोसला है और पोलिटिकल एकानोमी के (गजनीतिक अर्थशास्त्र के ) मतानुसार इस विलास-पदार्थ से जितना अधिक सम्भव हो टैक्स लेना चाहिए। यदि कोई निर्धन है तो हो। यदि कोई मरता है तो मरे। उसे क्या अधिकार है कि वह बीमार पड़े और मुफ़्त में दवा कराये ? भारतवर्ष की यह दशा अधिकतर मुफ़्त दवा कराने से हुई है। इसने मनुष्यों को असावधान और बलहीन बना दिया है । देवदत्त महीने भर से नित्य उनके निकट दवा लेने आता था, परन्तु वैद्यजी कभी उसकी ओर इतना ध्यान