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नव-निधि


उनके सामने वह स्वयं हँसती, उसकी आँखें हँसती और आँखों का काजल हँसता था। किन्तु प्राह ! जब वह अकेली होती, उसका चंचल चित्त उड़कर उसी कुण्ड के तट पर जा पहुँचता, कुण्ड का वह नीला-नीला पानी, उस पर तैरते हुए कमल और मौलसरी की वृक्षपंक्तियों का सुन्दर दृश्य आँखों के सामने श्रा जाता। उमा मुसकराती और नज़ाकत से लचकती हुई आ पहुँचती,तब रसीले योगी की मोहनी छवि आँखों में श्रा बैठती, और सितार के सुललित सुर गूंजने लगते-

कर गये थोड़े दिन की प्रीति

तब वह एक दीर्घ निःश्वास लेकर उठ बैठती और बाहर निकलकर पिंजरे में चहकते हुए पक्षियों के कलरव में शांति प्राप्त करती। इस भाँति यह स्वप्न तिरोहित हो जाता।

इस तरह कई महीने बीत गये। एक दिन राजा हरिश्चन्द्र प्रभा को अपनी चित्रशाला में ले गये। उसके प्रथम भाग में ऐतिहासिक चित्र थे। सामने ही शूरवीर महाराणा प्रतापसिंह का चित्र नज़र आया। मुखारविन्द से वीरता की ज्योति स्फुटित हो रही थी। तनिक और आगे बढ़कर दाहिनी अोर स्वामि-भक्त जगमल, वीरवर साँगा और दिलेर दुर्गादास विराजमान थे। बायी ओर उदार भीमसिंह बैठे हुए थे। राणा प्रताप के सम्मुख महाराष्ट्र केसरी वीर शिवाजी का चित्र था। दूसरे भाग में कर्मयोगी कृष्ण और मर्यादा पुरुषोत्तम राम विराबते थे। चतुर चित्रकारों ने चित्र-निर्माण में पूर्व कौशल दिखलाया था। प्रभा ने प्रताप के पाद-पद्मों को चूमा और वह कृष्ण के सामने देर तक नेत्रों में प्रेम और श्रद्धा के आँसू भरे मस्तक झुकाये खड़ी रही। उसके हृदय पर इस समय कलुषित प्रेम का भय खटक रहा था। उसे मालूम होता था कि यह उन महापुरुषों के चित्र नहीं ; उनकी पवित्र मात्माएँ हैं। उन्हीं के चरित्र से भारतवर्ष का इतिहास गौरवान्वित है। वे भारत के बहुमूल्य जातीय रत्न, उच्च कोटि के जातीय स्मारक, और गगनभेदी जातीय तुमुल ध्वनि हैं। ऐसी उच्च आत्माओं के सामने खड़े होते उसे संकोच होता था। आगे वही दूसरा भाग सामने आया। यहाँ ज्ञानमय बुद्ध योग-साधन में बैठे हुए देख पड़े। उनकी