"आपत-काल परखिए चारी।
धीरज धर्म मित्र अरु नारी॥"
महाराज ने पूछा--यह पत्र किसने भेजा है ?
'एक भिखारिनी ने।'
'भिखारिनी कौन है ?
'महारानी चन्द्रकुँवरि।'
कड़बड़ खत्री ने आश्चर्य से पूछा--जो हमारी मित्र अंगरेज़ सरकार के विरुद्ध होकर भाग आई हैं ?
राणा जंगबहादुर ने लज्जित होकर कहा--जी हाँ। यद्यपि हम इसी विचार को दूसरे शब्दों में प्रकट कर सकते हैं।
कड़बड़ खत्री--अँगरेजों से हमारी मित्रता है और मित्र के शत्रु की सहायता करना मित्रता की नीति के विरुद्ध है।
जनरल शमशेरवहादुर--ऐसी दशा में इस बात का भय है कि अँगरेज़ी सरकार से हमारे सम्बन्ध टूट न जायँ।
राजकुमार रणवीरसिंह--हम वह मानते हैं कि अतिथि सत्कार हमारा धर्म है; किन्तु उसी समय तक जब तक कि हमारे मित्रों को हमारी ओर से शंका करने का अवसर न मिले।
इस प्रसंग पर यहाँ तक मत-भेद तथा वाद-विवाद हुआ कि एक शोर-सा मच गया और कई प्रधान यह कहते हुए सुनाई दिये कि महारानी का इस समय आना देश के लिए कदापि मगलकारी नहीं हो सकता।
तब राणा जंगबहादुर उठे। उनका मुख लाल हो गया था। उनका सद्विचार क्रोध पर अधिकार जमाने के लिए व्यर्थ प्रयत्न कर रहा था। वे बोले--भाइयों, यदि इस समय मेरी बातें आप लोगों को अत्यन्त कड़ी जान पड़ें तो मुझे क्षमा कीजिएगा, क्योंकि अब मुझमें अधिक श्रवण करने की शक्ति नहीं है। अपनी
जातीय साहस हीनसा का यह लज्जाजनक दृश्य अब मुझसे नहीं देखा जाता। यदि नैपाल के दरबार में इतना भी साहस नहीं कि वह अतिथि-सत्कार और सहायता की नीति को निभा सके तो मैं इस घटना के सम्बन्ध में सब प्रकार का भार अपने