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जुगुनू की चमक


हुए थे। नैपाल ने एक बड़ी लड़ाई के पश्चात् तिब्बत पर विजय पाई थी। इस समय सन्धि की शर्तों पर विवाद छिड़ा था। कोई युद्ध व्यय का इच्छुक था, कोई राज्य-विस्तार का। कोई कोई महाशय वार्षिक कर पर जोर दे रहे थे। केवल राणा जंगबहादुर के आने की देर थी। वे कई महीनों के देशाटन के पश्चात् आज ही रात को लौटे थे और यह प्रसंग, जो उन्हीं के आगमन की प्रतीक्षा कर रहा था, अब मंत्रि-सभा में उपस्थित किया गया था। तिब्बत के यात्री, आशा और भय की दशा में, प्रधान मंत्री के मुख से अन्तिम निर्णय सुनने को उत्सुक हो रहे थे। नियत समय पर चोरदार ने गणा के आगमन की सूचना दी। दरबार के लोग उन्हें सम्मान देने के लिए खड़े हो गये। महाराज को प्रणाम करने के पश्चात् वे अपने सुसज्जित आसन पर बैठ गये। महाराज ने कहा- राणा जी, श्राप सन्धि के लिए कौन प्रस्ताव करना चाहते थे।

राणा ने नम्र भाव से कहा-मेरी अल्प बुद्धि में तो इस समय कठोरता का व्यवहार करना अनुचित है। शोकाकुल शत्रु के साथ दयालुता का आचरण करना सर्वदा हमारा उद्देश्य रहा है। क्या इस अवसर पर त्वार्थ के मोह में हम अपने बहुमूल्य उद्देश्य को भूल जायँगे ? हम ऐसी सन्धि चाहते है जो हमारे हृदय को एक कर दे। यदि तिब्बत का दरबार में व्यापारिक सुविधाएँ प्रदान करने को कटिबद्ध हो, तो हम सन्धि करने के लिए सर्वथा उद्यत है।

मंत्रि-मंडल में विवाद आरम्भ हुआ। सबकी सम्मति इस दयालुता के अनुसार न थी, किन्तु महाराज ने राणा का समर्थन किया।यद्यपि अधिकांश सदस्यों को शत्रु के साथ ऐसी नरमी पसन्द न थी, तथापि महाराज के विपक्ष में बोलने का किसी को साहस न हुआ

यात्रियों के चले जाने के पश्चात् राणा जंगबहादुर ने खड़े होकर कहा-सभा के उपस्थित सज्जनों, आज नेपाल के इतिहास में एक नई घटना होनेवाली है, जिसे मैं आप की जातीय नीतिमत्ता की परीक्षा समझता हूँ। इसमें सफल होना आपके ही कर्तव्य पर निर्भर है। आज राज-सभा में आते समय मुझे यह आवेदनपत्र मिला है, जिसे मैं आप सज्जनों की सेवा में उपस्थित करता हूँ। निवेदक ने तुलसीदास की केवल यह चौपाई लिख दी है।