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जुगुनू की चमक


लगी, शोक और अन्धकार-मय स्वप्न की भाँति जो ध्यान की तरंगों के साथ बहा चला जाता हो। नाव के हिलने से मल्लाह चौंककर उठ बैठा। आँखें मलते-मलते उसने सामने देखा तो पररे पर एक स्त्री हाथ में डॉड लिये बैठी है। घबराकर पूछा-तें कौन है रे ? नाव कहाँ लिये जात है? रानी हँस पड़ी। भय के अन्त को स.हस कहते हैं। बोली-सच बताऊँ या झूठ ?

मल्लाह कुछ भयभीत-सा होकर बोला-सच बताया जाय।

रानी बोली-अच्छा तो सुनो। मैं लाहौर की रानी चन्द्रकुंवरि हूँ। इसी किले में कैदी थी। भान भागी जाती हूँ। मुझे जल्दी बनारस पहुँचा दे। तुझे निहाल कर दूँगी और यदि शरारत करेगा तो देख,इस कटार से सिर काट दूंगी। सबेरा होने से पहले मुझे बनारस पहुँचना चाहिए।

यह धमकी काम कर गई। मल्लाह ने विनीति भाव से अपना कम्बल बिल्ला दिया और तेजी से डाँड़ चलाने लगा। किनारे के वृक्ष और उपर जगमगाते हुए तारे साथ-साथ दौड़ने लगे।

प्रातःकाल चुनार के दुर्ग में प्रत्येक मनुष्य अचम्भित और व्याकुल था। सन्तरी, चौकीदार और लौंड़ियाँ सब सिर नीचे किये दुग के स्वामी के सामने उपस्थित थे। अन्वेषण हो रहा था;परन्तु कुछ पता न चलता था।

उधर रानी बनारस पहुँची। परन्तु वहाँ पहले से ही पुलिस और सेना का जाल बिछा हआ था। नगर के नाके बन्द थे। रानी का पता लगानेवाले के लिए एक बहुमूल्य पारितोषिक की सूचना दी गई थी।

बन्दीगृह से निकलकर रानी को जात हो गया कि वह और दृढ़ कारागार में है। दुर्ग में प्रत्येक मनुष्य उसका श्राज्ञाकारी था। दुर्ग का स्वामी भी उसे सम्मान को दृष्टि से देखता था। किन्तु आज स्वतन्त्र होकर भी उसके प्रोठ बन्द थे। उसे सभी स्थानों में शत्रु देख पड़ते थे। पंखरहित पक्षी को पिंजरे के कोने में ही सुख है।

पुलिस के अफसर प्रत्येक आने-बानेवालों को ध्यान से देखते थे, किन्तु उस भिखारिनी की भोर किसी का ध्यान नही जाता था, जो एक फटी हुई साड़ी पहने यात्रियों के पीछे-पीछे धीरे-धीरे सिर झुकाये गङ्गा की ओर चली आ रही