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पाप का अग्निकुण्ड


की आवाज़ कान में आ पड़ती है। राजनन्दिनी की आँख एकाएक खुली,तो उसने धर्मसिंह को पलंग पर न पाया। चिन्ता हुई, वह झट उठकर व्रजविलासिनी के कमरे की ओर चली और दरवाजे पर खड़ी होकर भीतर की ओर देखने लगी। संदेह पूरा हो गया। क्या देखती है कि विलासिनी हाथ में तेगा लिये खड़ी है और धर्मसिंह दोनों हाथ जोड़े उसके सामने दोनों की तरह घुटने टेके बैठे हैं। वह दृश्य देखते ही राजनन्दिनी का खून सूख गया और उसके सिर में चक्कर आने लगा, पैर लड़खड़ाने लगे। जान पड़ता था कि गिरी जाती है। वह अपने कमरे में आई और मुँह ढंककर लेट रही, पर उसकी आँखों से एक बूंद भी न निकली।

दूसरे दिन पृथ्वीसिंह बहुत सबेरे ही कुँवर धर्मसिंह के पास गये और मुस्कराकर बोले-भैया, मौसिम बड़ा सुहावना है, शिकार खेलने चलते हो ?

धर्मसिंह - हाँ, चलो।

दोनों राजकुमारों ने घोड़े कसवाये और जंगल की ओर चल दिये। पृथ्वी-सिंह का चेहरा खिला हुआ था, जैसे कमल का फूल। एक-एक अंग से तेजी और चुस्ती टपकी पड़ती थी। पर कुँवर धर्मसिंह का चेहरा मैला हो गया था मानो बदन में जान ही नहीं है। पृथ्वीसिंह ने उन्हें कई बार छेड़ा, पर जब देखा कि वे बहुत दुखी हैं, तो चुप हो गये। चलते-चलते दोनों आदमी झील के किनारे पर पहुँचे। एकाएक धर्मसिंह ठिठके और बोले-मैंने आज रात को एक दृढ़ प्रतिज्ञा की है। यह कहते-कहते उनकी आँखों में पानी आ गया। पृथ्वीसिंह ने घबड़ाकर पूछा कैसी प्रतिमा ?

तुमने व्रजविलासिनी का हाल सुना है ? मैंने प्रतिज्ञा की है कि जिस आदमी ने उसके बाप को मारा है, उसे भी जहन्नुम पहुँचा हूँ।

'तुमने सचमुच वीर-प्रतिज्ञा की है।'

'हाँ, यदि मैं पूरी कर सकूँ। तुम्हारे विचार में ऐसा आदमी मारने योग्य है या नहीं ?

'ऐसे निर्दयी की गर्दन गुठ्ठल छुरी से काटनी चाहिए।'

'बेशक,यही मेरा भी विचार है। यदि मैं किसी कारण यह काम न कर सकूं तो तुम मेरी प्रतिज्ञा पूरी कर दोगे ?'