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नव-निधि


आदमी आते दिखाई पड़े। मैं तलवार छोड़कर भागी। तीन वर्ष तक पहाड़ों और जंगलों में छिपी रही। बार-बार जी में पाया कि कहीं डूब मरूँ, पर जान वही प्यारी होती है। न जाने क्या-क्या मुसीबतें और कठिनाइयाँ भोगनी हैं जिनको भोगने को अभी तक जीती हूँ। अन्त में जब जंगल में रहते-रहते जी उकता गया, तो जोधपुर चली आई। यहाँ आपकी दयालुता की चर्चा सुनी। आपकी सेवा में आ पहुँची और तसे आपकी कृपा से मैं पाराम से जीवन बिता रही हूँ। यही मेरी रामकहानी है।"

राजनन्दिनी ने लम्बी साँस लेकर कहा-दुनिया में कैसे कैसे लोग भरे हुए हैं ? खैर, तुम्हारी तलवार ने उसका काम तो तमाम कर दिया ?

व्रजविलासिनी-कहाँ बहिन! वह बच गया,जखम ओछा पड़ा था। उसी शकल के एक नौजवान राजपूत को मैंने जंगल में शिकार खेलते देखा था। नहीं मालूम, वही था या और कोई, शकल बिलकुल मिलती थी।

कई महीने बीत गये। राजकुमारियों ने जबसे व्रजविलासिनी की रामकहानी सुनी है, उसके साथ वे और भी प्रेम और सहानुभूति का बर्ताव करने लगी हैं। पहले बिना संकोच कभी-कभी छेड़छाद हो जाती थी; पर अब दोनों हरदम उसका दिल बहलाया करती हैं । एक दिन बादल घिरे हुए थे; गजनन्दिनी ने कहा-आज बिहारी लाल की 'सतसई' सुनने को जी चाहता है। वर्षा ऋतु पर उसमें बहुत अच्छे दोहे हैं।

दुर्गाकुँवरि-बड़ी अनमोल पुस्तक है। सखी, तुम्हारी वगल में जो बाल-मारी रखी है, उसी में वह पुस्तक है, जरा निकालना। व्रजविलासिनी ने पुस्तक उतारी, और उसका पहला ही पृष्ठ खोला था कि उसके हाथ से पुस्तक छूटकर गिर पड़ी। उसके पहले पृष्ठ पर एक तसवीर लगी हुई थी। वह उसी निर्दय युवक की तसवीर थी जो उसके बाप का इत्याग था। व्रजविलासिनी की आखें लाल हो गई। त्योरी पर बल पड़ गये। अपनी प्रतिज्ञा याद आ गई। पर उसके साथ ही यह विचार उत्पन्न हुआ कि इस प्रादमी का चित्र यहाँ कैसे पाया और इसका इन राजकुमारियों से क्या सम्बन्ध है। कहीं ऐसा न हो कि मुझे इनका कृतज्ञ होकर अपनी प्रतिज्ञा तोड़नी पड़े। राजनन्दिनी ने उसकी सूरत देखकर कहा-