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मर्यादा की वेदी


प्रभा को यह शब्द शर-सा लगा। वह तिलमिलाकर बोली-उस समय इसी छुरी के एक वार से खून की नदी बहने लगती। मैं नहीं चाहती थी कि मेरे कारण मेरे भाई - बन्धुओं की जान जाय। इसके सिवाय मैं कुँवारी थी। मुझे अपनीमर्यादा के भंग होने का कोई भय न था। मैंने पातिव्रत नहीं लिया। कम-से कम संसार मुझे ऐसा समझता था। मैं अपनी दृष्टि में अब भी वही हूँ। किन्तु संसार की दृष्टि में कुछ और हो गई हूँ। लोक लाज ने मुझे राणा की आज्ञाकारिणी बना दिया है। पातिव्रत की बेड़ी ज़बरदस्ती मेरे पैरों में डाल दी गई है। अब इसकी रक्षा करना मेरा धर्म है। इसके विपरीत और कुछ करना क्षत्राणियों के नाम को कलंकित करना है। तुम मेरे घाव पर व्यर्थ नमक क्यों छिड़कते हो ? यह कौन - सी भल-मनसी है ? मेरे भाग्य में जो कुछ बदा है वह भोग रही हूँ। मुझे भोगने दो और तुमसे विनती करती हूँ कि शीघ्र ही यहाँ से चले जाओ।

राजकुमार एक पग और बढ़ाकर दुष्ट भाव से बोला-प्रभा, यहाँ ग्राकर तुम त्रिया चरित्र में निपुण हो गई। तुम मेरे साथ विश्वासघात करके अब धर्म की बाद ले रही हो। तुमने मेरे प्रणय को पैरों तले कुचल दिया और अब मर्यादा का बहाना ढूँढ़ रही हो। मै इन नेत्रों से राणा को तुम्हारे सौन्दर्य-पुष्प का भ्रमर बनते नहीं देख सकता। मेरी कामनाएँ मिट्टी में मिलती हैं तो तुम्हें लेकर बायँगी ! मेरा जीवन नष्ट होता है तो उसके पहिले तुम्हारे जीवन का भी अन्त होगा। तुम्हारी बेवफ़ाई का यही दण्ड है। बोलो, क्या निश्चय करती हो ? इस समय मेरे साथ चलती हो या नहीं। किले के बाहर मेरे आदमी खड़े हैं।

प्रभा ने निर्भयता से कहा - नहीं।

राजकुमार-सोच लो, नहीं तो पछताोगी।

प्रभा-ख़ूब सोच लिया है।

राजकुमार ने तलवार खींच ली और वह प्रभा की तरफ़ लपको। प्रभा भय से आँखें बन्द किये एक कदम पीछे हट गई। मालूम होता था उसे मूर्छा पाजायगी।

अकस्मात् राणा तलवार लिये वेग के साथ कमरे में दाखिल हुए। राजकुमार संभलकर खड़ा हो गया।

राणा ने सिंह के समान गरजकर कहा - दूर हट। क्षत्रिय स्त्रियों पर हाथ नहीं उठाते।