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मर्यादा की वेदी


के समान समझते थे। यह भी मानी हुई बात है कि जैसी वस्तुओं का हम सेवन करते हैं, वैसी ही आत्मा भी बनती है। इसलिए ये महात्मागण घी और खोये से उदर को खूब भर रहे थे।

पर इन्हीं में एक महात्मा ऐसे भी थे जो आँखें बन्द किये ध्यान में मम थे। थाल की ओर ताकते भी न थे। इनका नाम प्रेमानन्द था। ये आज ही आये थे। इनके चेहरे पर कान्ति झलकती थी। अन्य साधु खाकर उठ गये, परन्तु उन्होंने थाल छुआ भी नहीं।

मीग ने हाथ जोड़कर कहा-महराज,आपने प्रसाद को छुआ भी नहीं। दासी से कोई अपराध तो नहीं हुआ ?

साधु-नहीं, इच्छा नहीं थी।

मीरा-पर मेरी विनय श्रापको माननी पड़ेगी।

साधु-मैं तुम्हारी आज्ञा का पालन करूँगा, तो तुमको भी मेरी एक बात माननी होगी।

मीरा-कहिए, क्या आशा है!

साधु-माननी पड़ेगी।

मीरा-मानूंगी।

साधु-बचन देती हो ?

मीरा-बचन देती हूँ, आप प्रसाद पायें।।

मीराबाई ने समझा था कि साधु कोई मन्दिर बनवाये या यज्ञ पूर्ण करा देने की याचना करेगा। ऐसी बातें नित्य प्रति हुआ ही करती थीं और मीरा का सर्वस्व साधु-सेवा के लिए अर्पित था। परन्तु उसके लिए साधु ने ऐसी कोई याचना न की। वह मीरा के कानों के पास मुँह ले जाकर बोला-आज दो घंटे के बाद राज-भवन का चोरदरवाजा खोल देना।

मीरा विस्मित होकर बोली-आप कौन हैं?

साधु-मन्दार का राजकुमार।

मीरा ने राजकुमार को सिर से पाँव तक देखा। नेत्रों में आदर की जगह घृणा थी। कहा-राजपूत यों छल नहीं करते।