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मर्यादा की वेदी


एक दिन अँझलाकर उसने राणा को बुला भेना। वे आये। उनका चेहरा उतरा था। वे कुछ चिन्तित-से थे। प्रभा कुछ कहना चाहती थी,पर उनकी सूरत देखकर उसे उनपर दया आ गई। उन्होंने उसे बात करने का अवसर न देकर स्वयं कहना शुरू किया।

"प्रभा, तुमने आज मुझे बुलाया है। यह मेरा सौभाग्य है। तुमने मेरी सुधि तो ली। मगर यह मत समझो कि मैं मृदु-वाणी सुनने की आशा लेकर आया हूँ। नहीं, मैं जानता हूँ जिसके लिए तुमने मुझे बुलाया है। यह लो, तुम्हारा अपराधी तुम्हारे सामने खड़ा है। उसे जो दण्ड चाहो दो, मुझे अब तक आने का साहस न हुआ। इसका कारण यही दण्ड भय या। तुम क्षत्राणी हो और क्षत्राणियाँ क्षमा करना नहीं जानतीं। झालावाड़ में जब तुम मेरे साथ आने पर स्वयं उद्यत हो गई, तो मैंने उसी क्षण तुम्हारे जौहर परख लिये। मुझे मालूम हो गया कि तुम्हारा हृदय बल और विश्वास से भरा हुआ है। उसे काबू में लाना सहज नहीं। तुम नहीं जानतीं कि यह एक मास मैंने किस तरह काटा है। तड़प-तड़प कर मर रहा हूँ। पर जिस तरह शिकारी बफरी हुई सिहनी के सम्मुख जाने से डरता है, वही दशा मेरी थी। मैं कई बार आया,यहाँ तुमको उदास तिउरियाँ चिढ़ाये बैठे देखा। मुझे अन्दर पैर रखने का साहस न हुआ। मगर आज मैं बिना बुलाया मेहमान नहीं हूँ। तुमने मुझे बुलाया है और तुम्हें अपने मेहमान का स्वागत करना चाहिए। हृदय से न सही - जहाँ अग्नि प्रज्ज्वलित हो वहाँ ठण्डक कहाँ ?-बातों ही से सही, अपने भावों को दबाकर ही सही, मेहमान का स्वागत करो। संसार में शत्रु का आदर मित्रों से भी अधिक किया जाता है।"

"प्रभा, एक क्षण के लिए क्रोध को शान्त करो और मेरे अपराधों पर विचार करो। तुम मेरे ऊपर यही दोषारोपण कर सकती हो कि मैं तुम्हें माता-पिता की गोद से छीन लाया। तुम जानती हो, कृष्ण भगवान् रुक्मिणी को हर लाये थे। राजपूतों में यह कोई नई बात नहीं है। तुम कहोगी,इससे झालावाड़वालों का अपमान हुआ; पर ऐसा कहना कदापि ठीक नहीं। झालावाड़वालों ने वही किया जो मर्दो का धर्म था। उनका पुरुषार्थ देखकर हम चकित हो गये। यदि वे कृतकार्य नहीं हुए तो यह उनका दोष नहीं है। वीरों की सदैव जीत नहीं