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रानी सारन्धा


रानी-मुझसे यह कैसे होगा ?

पाँचवाँ और अन्तम सिपाही धरती पर गिरा। राजा ने मुँझलाकर कहा-इसी जीवन पर प्रान निभाने का गर्व था ?

बादशाह के सिपाही राजा की तरफ लपके। राजा ने नैराश्यपूर्ण भाव से रानी की ओर देखा। रानी क्षण भर अनिश्चित रूप से खड़ी रही। लेकिन संकट में हमारी निश्चयात्मक शक्ति बलवान हो जाती है। निकट था कि सिपाही लोग राजा को पकड़ लें कि सारन्धा ने दामिनी की भाँति लपककर अपनी तलवार राजा के हृदय में चुभा दी।

प्रेम की नाव प्रेम के सागर में डूब गई। राजा के हृदय से रुधिर की धारा निकल रही थी, पर चेहरे पर शान्ति छाई हुई थी।

कैसा हृदय है ! वह स्त्री जो अपने पति पर प्राण देती थी, आज उसकी प्राणघातिका है ! जिस हृदय से आलिङ्गित होकर उसने यौवन-सुख लूटा, जो हृदय उसकी अभिलाषाओं का केन्द्र था, जो हृदय उसके अभिमान का पोषकथा, उसी हृदय को सारन्धा की तलवार खेद रही है ! किस स्त्री की तलवार से ऐसा काम हुआ है ? -

आह! आत्माभिमान का कैसा विषादमय अन्त है। उदयपुर और मारवाड़ के इतिहास में भी आत्म-गौरव की ऐसी घटनाएँ नहीं मिलती।

बादशाही सिपाही सारन्धा का यह साहस और धैर्य देखकर दङ्ग रह गये।

सरदार ने आगे बढ़कर कहा-रानी साहिबा, खुदा गवाह है; हम सब आपके गुलाम हैं। आपका जो हुक्म हो उसे ब-सरो-चश्म बजा लायेंगे।

सारन्धा ने कहा-अगर हमारे पुत्रों में से कोई जीवित हो, तो ये दोनों लाशें उसे सौंप देना।

यह कहकर उसने वही तलवार अपने हृदय में चुभा ली। अब वह अचेत होकर धरती पर गिरी तो उसका सिर राजा चम्पतराय की छाती पर था।

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