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नव-निधि


उन्हें एक विचार आया। तलवार की तरफ हाथ बढ़ाया, मगर हाथों में दम न था। तब सारन्धा से बोले -- प्रिये, तुमने कितने ही अवसरों पर मेरी आन निभाई है।

इतना सुनते ही सारन्धा के मुरझाये हुए मुख पर लाली दौड़ गई। आँसू सूख गये। इस आशा ने कि मैं अब भी पति के कुछ काम आ सकती हूँ, उसके हृदय में बल का संचार कर दिया। वह राजा की ओर विश्वासोस्दपादक भाव से देखकर बोली -- ईश्वर ने चाहा तो मरते दम तक निभाऊँगी।

रानी ने समझा, राजा मुझे प्राण देने का संकेत कर रहे हैं।

चम्पतराय -- तुमने मेरी बात कभी नहीं टाली।

सारन्धा -- मरते दम तक न टालूँगी।

राजा -- यह मेरी अन्तिम याचना है। इसे अस्वीकार न करना।

सारन्धा ने तलवार को निकालकर अपने वक्षःस्थल पर रख लिया और कहा -- वह आपकी आज्ञा नहीं है । मेरी हार्दिक अभिलाषा है कि मरूँ तो यह मस्तक आपके पद-कमलों पर हो।

चम्पतराय -- तुमने मेरा मतलब नहीं समझा। क्या तुम मुझे इसलिए शत्रुओं के हाथ में छोड़ जाोओगी कि मैं बेड़ियाँ पहने हुए दिल्ली की गलियों में निन्दा का पात्र बनूॅ ?

रानी ने जिज्ञासा-दृष्टि से राजा को देखा। वह उनका मतलब न समझी।

राजा -- मैं तुमसे एक वरदान माँगता हूँ।

रानी -- सहर्ष माँगिए।

राजा-- यह मेरी अन्तिम प्रार्थना है। जो कुछ कहूँगा, करोगी?

गनी -- सिर के बल करूँगी।

राजा -- देखो, तुमने वचन दिया है। इनकार न करना।

रानी -- (काँपकर) आपके कहने की देर है।

राजा -- अपनी तलवार मेरी छाती में चुभा दो।

रानी के हृदय पर वज्राघात-सा हो गया। बोली -- जीवननाथ ! -- इसके आगे वह और कुछ न बोल सकी। आँखों में नैराश्य छा गया।

राजा -- मैं बैड़ियाँ पहनने के लिए जीवित रहना नहीं चाहता।