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रानी सारन्धा


जाता था। सारन्धा सदैव उनके साथ रहती और उनका साहस बढ़ाया करती। बड़ी-बड़ी आपत्तियों में जब कि धैर्य लुप्त हो जाता-और आशा साथ छोड़ देती-आत्म-रक्षा का धर्म उसे सँभाले रहता था। तीन साल के बाद अन्त में बादशाह के सूबेदारों ने पालमगीर को सूचना दी कि इस शेर का शिकार आपके सिवाय और किसी से न होगा। उत्तर आया कि सेना को हटा लो और घेरा उठा लो। राजा ने समझा, संकट से निवृत्ति हुई, पर वह बात शीघ्र ही भ्रमात्मक सिद्ध हो गई।

तीन सप्ताह से बादशाही सेना ने ओरछा घेर रखा है। जिस तरह कठोर वचन हृदय को छेद डालते हैं,उसी तरह तोपों के गोलों ने दीवारों को छेद डाला है। किले में २० हाजार आदमी घिरे हुये हैं, लेकिन उनमें आधे से अधिक स्त्रियाँ और उनसे कुछ ही कम बालक हैं। मर्दो की संख्या दिनों-दिन न्यून होती जाती है। आने-जाने के मार्ग चारों तरफ से बन्द है। हवा का भी गुजर नहीं। रसद का सामान बहुत कम रह गया है। स्त्रियाँ पुरुषों और बालकों को जीवित रखने के लिये आप उपवास करती हैं। लोग बहुत हताश होरहे हैं। औरतें सूर्यनारायण की ओर हाथ उठा-उठाकर शत्रु को कोसती हैं। बालकवृन्द मारे क्रोध के दीवारों की आड़ से उन पर पत्थर फेंकते है, जो मुश्किल से दीवार के उस पार जा पाते हैं। राजा चम्पतराय स्वयं ज्वर से पीड़ित हैं। उन्होंने कई दिन से चारपाई नहीं छोड़ी। उन्हें देखकर लोगों को कुछ ढारस होता था,लेकिन उनकी बीमारी से सारे किले में नैराश्य छाया हुआ है।

राजा ने सारन्धा से कहा-आज शत्रु ज़रूर किले में घुस आयेंगे।

सारन्धा-ईश्वर न करे कि इन आँखों से वह दिन देखना पड़े।

राजा-मुझे बड़ी चिन्ता इन अनाथ स्त्रियों और बालकों की है। गेहूँ के साथ यह घुन भी पिस जायँगे।

सारन्धा-हम लोग यहाँ से निकल जायँ तो कैसा!

राजा-इन अनाथों को छोड़कर?

सारन्धा-इस समय इन्हें छोड़ देने ही में कुशल है। हम न होंगे तो शत्रु इन पर कुछ दया ही करेंगे।