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रानी सारन्धा


सहन में निकल आये। लोग अपनी अपनी तलवार सँभालने लगे और चारों तरफ शोर मच गया। कितने ही नेत्रों ने इसी दरबार में अमरसिंह की तलवार की चमक देखी थी। उन्हें वही घटना फिर याद श्रागई!

सारन्धा ने उच्च स्वर से कहा-खाँ साहब,बड़ी लञ्जा की बात है कि आपने वही वीरता जो चम्बल के तट पर दिखानी चाहिये थी,आज एक अबोध बालक के सम्मुख दिखाई है। क्या यह उचित था कि आप उससे घोड़ा छीन लेते?

वली बहदुर खाँ की आँखों से अग्नि-ज्वाला निकल रही थी। वे कड़ी आवाज से बोले-किसी गर की क्या मजाज़ है कि मेरी चीज़ अपने काम में लाये?

रानी-वह आपकी चीज़ नहीं,मेरी है। मैंने उसे रण-भूमि में पाया है और उस पर मेग अधिकार है। क्या रण-नीति की इतनी मोटीबात भी आप नहीं जानते?

खाँ साहब-वह घोड़ा मैं नहीं दे सकता,उसके बदले में सारा अस्तबल आपकी नज़र है।

रानी-मैं अपना घोड़ा लूंगी।

खाँ साहब-मैं उसके बराबर जवाहरात दे सकता हूँ , परन्तु घोड़ा नहीं दे सकता!

रानी-तो फिर इसका निश्चय तलवार से होगा। बुन्देला योद्धाओं ने तलवारें सौंत ली,और निकट था कि दरबार की भूमि रक्त से प्लावित हो जाय,बादशाह श्रालमगीर ने बीच में आकर कहा-रानी साहब,आप सिपाहियों को रोके। घोड़ा आपको मिल जायगा,परन्तु इसका मूल्य बहुत देना पड़ेगा।

गनी-मैं उसके लिये अपना सर्वस्व देने को तेयार हूँ।

बादशाह-जागीर और मन्सब भी?

रानी-जागीर और मन्सब कोई चीज़ नहीं।

बादशाह-अपना राज्य भी?

रानी- हाँ,राज्य भी?