यह पृष्ठ प्रमाणित है।
१२४
नव-निधि

रही थी। निदान उसे लज्जा त्यागनी पड़ी। वह रोती हुई पास जाकर बोली––प्राणनाथ, मुझे और इस असहाय बालक को किस पर छोडे जाते हो।

कुँवर साहब ने धीरे से कहा––पण्डित दुर्गानाथ पर। वे जल्द आयेंगे। उनसे कह देना कि मैंने सब कुछ उनके भेंट कर दिया। यह अन्तिम वसीयत है।