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पछतावा

तांता लगा रहता था। लेकिन दवाओं का उलटा प्रभाव पड़ता ज्यों-त्यों करके उन्होंने ढाई वर्ष बिताये। अन्त में उनकी शक्तियों ने जवाब दे दिया। उन्हें मालूम हो गया कि अब संसार से नाता टूट जायगा। अब चिन्ता ने और धर दबाया––यह सारा हाल असबाब, इतनी बड़ी सम्पत्ति किसपर छोड़ जाऊँ? मन की इच्छाएँ मन ही में रह गई। लड़के का विवाह भी न देख सका। उसकी तोतली बातें सुनने का भी सौभाग्य न हुआ। हाय, अब इस कलेजे के टुकड़े को किसे सौंपूँ जो इसे अपना पुत्र समझें। लड़के की मां स्त्री जाति, न कुछ जाने न समझे। उससे कारबार सँभलना कठिन है। मुख्तारआम, गुमाश्ते, कारिन्दे कितने है, परन्तु सबके सब स्वार्थी-विश्वासघाती। एक भी ऐसा पुरुष नहीं जिस पर मेरा विश्वास जमे। कोर्ट ऑफ वार्ड्‌स के सुपुर्द करूँ तो वहाँ भी ये ही सब आपत्तियाँ। कोई इधर दबायेगा कोई उधर। अनाथ बालक को कौन पूछेगा? हाय, मैंने आदमी नहीं पहिचाना! मुझे हीरा मिल गया था, मैंने उसे ठीकरा समझा! कैसा सच्चा, कैसा वीर, दृढ़प्रतिज्ञ पुरुष था। यदि वह कहीं मिल जाये तो इस अनाथ बालक के दिन फिर जायँ। उसके हृदय में करुणा हे, दया है। वह अनाथ बालक पर तरस खायगा। हा ! क्या मुझे उसके दर्शन मिलेंगे? मैं उस देवता के चरण धोकर माथे पर चढ़ाता। आँसुओं से उसके चरण धोता। वही यदि हाथ लगाये तो यह मेरी डूबती नाव पार लगे।

ठाकुर साहब की दशा दिन पर दिन बिगड़ती गई। अब अन्तकाल जा पहुँचा। उन्हें पंडित दुर्गानाथ की रट लगी हुई थी। बच्चे का मुँह देखते और कलेजे से एक आह निकल जाती। बार-बार पछताते और हाथ मलते। हाय! उस देवता को कहाँ पाऊँ? जो कोई उसके दर्शन करा दे, आधी जायदाद उसके न्योछावर कर दूँ।––प्यारे पण्डित! मेरे अपराध क्षमा करो। मैं अन्धा था, अज्ञान था। अब मेरी बाँह पकड़ो। मुझे डूबने से बचायो। इस अनाथ बालक पर तरस खाओ।

हितार्थी और संबन्धियों का समूह सामने खड़ा था। कुँवर साहब ने उनकी ओर अधखुली आँखों से देखा। सच्चा हितैषी कहीं देख न पड़ा। सबके चेहरे पर स्वार्थ की झलक थी । निराशा से आँखें मूंँद लीं। उनकी स्त्री फूट-फूटकर रो