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पछतावा

रहा है। सो भी अधिक तनख्वाह नही देनी पड़ेगी। इसे रख लेना ही उचित है। लेकिन पण्डितजी की बात का उत्तर देना आवश्यक था, अतः कहा- महाशय, सत्यवादी मनुष्य को कितना ही कम वेतन दिया जाये, वह सत्य को न छोड़ेगा और अधिक वेतन पाने से बेहमान सच्चा नहीं बन सकता है। सच्चाई का रुपये से कुछ सम्बन्ध नहीं। मैंने ईमानदार कुली देखे हैं और बेहमान बड़े-बड़े धनाढ्य पुरुष। परन्तु अच्छा, आप एक सज्जन पुरुष हैं। आप मेरे यहाँ प्रसन्नतापूर्वक रहिए। मैं आपको एक इलाके का अधिकारी बना दूँगा और आपका काम देखकर तरक्की भी कर दूँगा।

दुर्गानाथजी ने २०) मासिक पर रहना स्वीकार कर लिया। यहाँ से कोई ढाई मील पर कई गाँवों का एक इलाका चाँदपार के नाम से विख्यात था। पण्डितजी इसी इलाके के कारिन्दे नियत हुए।

पण्डित दुर्गानाथ ने चाँदपार के इलाके में पहुँचकर अपने निवासस्थान को देखा तो उन्होनें कुँवर साहब के कथन को बिलकुल सत्य पाया। यथार्थ में रियासत की नौकरी सुख-सम्पत्ति का घर है। रहने के लिए सुन्दर बँगला है, जिसमें बहुमूल्य बिछौना बिछा हुआ था, सैकड़ों बीघे की सौर, कई नौकर-चाकर कितने ही चपरासी, सवारी के लिए एक सुन्दर टाँगन, सुख और ठाट बाट के सारे सामान उपस्थित। किन्तु इस प्रकार की सजावट और विलास की सामग्री देखकर उन्हें उतनी प्रसन्नता न हुई। क्योंकि इसी सजे हुए बँगले के चारों ओर किसानों के झोपड़े थे। फूस के घरों में मिट्टी के बर्तनों के सिवा और सामान ही क्या था ! वहाँ के लोगों में वह बँगला कोट के नाम से विख्यात था। लड़के उसे भय की दृष्टि से देखते। उसके चबूतरे पर पैर रखने का उन्हें साहस न पड़ता। इस दीनता के बीच में इतना बड़ा ऐश्वर्ययुक्त पृश्य उनके लिए अत्यन्त हृदय-विदार-कया। किसानों को यह दशा थी कि सामने आते हुए थरथर काँपते थे। चपरासी लोग उनसे ऐसा वर्ताव करते थे कि पशुओं के साथ भी वैसा नहीं होता।

पहले ही दिन कई सौ किसानों ने पण्डितजी को अनेक प्रकार के पदार्थ भेंट के रूप में उपस्थित किये, किन्तु अब वे सब लौटा दिये गये तो उन्हें बहत हो आश्चर्य हुआ। किसान प्रसन्न हुए, किन्नु चपरासियों का रक्त उबलने लगा।