बिछा रखा था और खलिहानों में सुनहले महल उठा दिये थे। सन्तोष इस सुनहले फर्श पर इठलाता फिरता था और निश्चिन्तता इस सुनहले महल में ताने अलाप रही थी। इन्हीं दिनों दिल्ली का नामवर फेकैत कादिर खाँ ओरछे आया। बड़े-बड़े पहलवान् उसका लोहा मान गये थे। दिल्ली से ओरछे तक सैकड़ों मर्दानगी के मद से मतवाले उसके सामने आये, पर कोई उससे जीत न सका। उससे लड़ना भाग्य से नहीं, बल्कि मौत से लड़ना था। वह किसी इनाम का भूखा न था ; जैसा ही दिल का दिलेर था, वैसा ही मन का राजा था। ठीक होनी के दिन उसने धूमधाम से ओरछे में सूचना दी कि "खुदा का शेर दिल्ली का कादिर खाँ ओरछे आ पहुँचा है। जिसे अपनी जान भारी हो, आकर अपने भाग्य का निपटारा कर ले। ओरछे के बड़े-बड़े बुन्देले सूरमा यह घमण्ड-भरी वाणी सुनकर गरम हो उठे। फाग और डफ की तान के बदले ढोल की वीर ध्वनि सुनाई देने लगी। हरदौल का अखाड़ा ओरछे के पहलवानों और फेकैतों का सबसे बड़ा अड्डा था। सन्ध्या को यहाँ सारे शहर के सूरमा जमा हुए। कालदेव और भालदेव बुन्देलों की नाक थे, सैकड़ों मैदान मारे हुए। ये ही दोनों पहलवान क़ादिरखाँ का घमण्ड चूर करने के लिए गये।
दूसरे दिन किले के सामने तालाब के किनारे बड़े मैदान में ओरछे के छोटे-बड़े सभी जमा हुए। कैसे-कैसे सजीले अलबेले जवान थे,-- सिर पर खुशरंग बाँकी पगड़ी, माथे पर चन्दन का तिलक, आँखों में मर्दानगी का सरूर, कमरों में तलवार। और कैसे-कैसे बूढ़े थे, तनी हुई मूछे, सादी पर तिरछी पगड़ी, कानों में बँधी हुई दाढ़ियाँ, देखने में तो बूढ़े पर काम में जवान, किसी को कुछ न समझनेवाले। उनकी मर्दाना चाल-ढाल नौजवानों को लजाती थी। हर एक के मुँह से वीरता की बातें निकल रही थीं। नौजवान कहते थे-देखें, आज ओरछे की लाज रहती है या नहीं। पर बूढ़े कहते-ओरछे की हार कभी नहीं हुई और न होगी। वीरों का यह जोश देखकर राजा हरदौल ने बड़े जोर से कह दिया, “खबरदार, बुन्देलों की लाज रहे या न रहे, पर उनकी प्रतिष्ठा में बल न पड़ने पाये। यदि किसी ने औरों को यह कहने का अवसर दिया कि ओरछेवाले तलवार से न जीत सके तो धाँधली कर बैठे, वह अपने को जाति का शत्रु समझे।"
सूर्य निकल आया था। एकाएक नगाड़े पर चोब पड़ी और आशा तथा