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नव-निधि


सेटजीने यह फटकार पढ़ी तो वे क्रोध से आग हो गये। यद्यपि क्षुद्र-हृदय के मनुष्य न थे; परन्तु क्रोध के आवेग में सौमन्य का चिन्ह भी शेष नहीं रहता। यह ध्यान न रहा कि यह एक दु:खिनी अबला की क्रन्दन-ध्वनि है, एक सताई हुई स्त्री का मानसिक विकार है। उसकी धन-हीनता और विवशता पर उन्हें तनिक भी दया न आई। वे मरे हुए को मारने का उपाय सोचने लगे।

इसके तीसरे दिन सेठ गिरधारीलाल पूजा के आसन पर बैठे हुए थे कि महरा ने आकर कहा- सरकार, कोई स्त्री आपसे मिलने आई है। सेठजी ने पूछा-कौन स्त्री है ? महरा ने कहा-सरकार, मुझे क्या मालूम, लेकिन हैं कोई भले-मानुस। रेशमी साड़ी पहने हुए हैं। हाथ में सोने के कड़े हैं। पैरों में टाट के स्लीपर हैं। बड़े घर की स्त्री जान पड़ती हैं।

यो साधारणतः सेठमी पूजा के समय किसी से नहीं मिलते थे। चाहे कैसा ही आवश्यक काम क्यों न हो, ईश्वरोपासना में सामयिक बाधाओं को घुसने नहीं देते थे। किन्तु ऐसी दशा में जब कि बड़े घर की स्त्री मिलने के लिए आए, तो थोड़ी देर के लिए पूजा में विलम्ब करना निन्दनीय नहीं कहा जा सकता। ऐसा विचार करके वे नौकर से बोले-उन्हें बुला लायो।

जब वह स्त्री आई तो सेठजी स्वागत के लिए उठकर खड़े हो गये। तत्प-श्चात् अत्यन्त कोमल वचनों से कारुणिक शब्दों में बोले, 'माता, कहाँ से आना-हुआ। और जब यह उत्तर मिला कि वह अयोध्या से आई हैं, तो आपने उसे फिर से दण्डवत् की, और चीनी तथा मिश्री से भी अधिक मधुर और नव-नीत से भी अधिक चिकने शब्दों में कहा, 'अच्छा, आप श्री अयोध्याजी से आ रही हैं ? उस नगरी का क्या कहना, देवताओं की पुरी है, बड़े भाग्य थे कि आपके दर्शन हुए। यहाँ आपका आगमन कैसे हुआ ?' स्त्री ने उत्तर दिया,'घर तो मेरा यहीं है। सेठजी का मुख पुनः मधुरता का चित्र बना। वे बोले, 'अच्छा, तो मकान आपका इसी शहर में है ? तो आपने माया-जंजाल को त्याग दिया? यह तो मैं पहले ही समझ गया था। ऐसी पवित्र आत्माएँ संसार में बहुत थोड़ी हैं। ऐसी देवियों के दर्शन दुर्लभ होते हैं। आपने मुझे दर्शन दिये, बड़ी कृपा की। मैं इस योग्य नहीं, जो आप-जैसी विदुषियों को कुछ सेवा