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ममता


कि ये दोनों मिलकर इस गिरधारीलाल को हड़पते बायँ। किन्तु गिरधारीलाल का कोई दोष नहीं। दोष तुम्हारा है। बहुत अच्छा हुआ। तुम इसी पूजा के देवता थे।। क्या अब दावते न खिलाओगे ? मैंने तुम्हें कितना समझाया, रोई, रूठी, विगडी किन्तु तुमने एक न सुनी। गिरधारीलाल ने बहुत अच्छा किया। तुम्हें शिक्षा तो मिल गई‌। किन्तु तुम्हारा भी दोष नहीं, यह सब बाग मैंने लगाई है। मखमनी स्लीपरों के बिना मेरे पाँव नहीं उठते थे। विना जड़ाऊ कड़ों के मुझे नींद न पाती थी। सेजगाड़ी मेरे ही लिए मैंगवाई गई। अँगरेजी पढ़ाने के लिए मेम साहब को मैंने ही रखा। ये सब काँटे मैंने ही बोये हैं।

मिसेज़ रामरक्षा बहुत देर तक इन्ही विचारों में डूबी रही। पब रात भर करवटें बदलने के बाद सबेरे उठी, तो उसके विचार चारों ओर से ठोकरें खाकर केवल एक केन्द्र पर जमगयेथे-गिरधारीलाल बड़ा बदमाश है और घमंडी है। मेरा सब कुछ लेकर भी उसे सन्तोष नहीं हुआ। इतना भी उस निर्दय कसाई से न देखा गया। भिन्न-भिन्न प्रकार के विचारों ने मिलकर एक रूप धारण किया और क्रोधाग्नि को दहकाकर प्रबल कर दिया। ज्वालामुखी शीशे में जब सूर्य की किरणें एकत्र होती हैं तब अग्नि प्रकट हो जाती है। इस स्त्री के हृदय में रह-रहकर क्रोध की एक असाधारण लहर उत्पन्न होती थी। बच्चे ने मिठाई के लिए हठ किया, उसपर बरस पड़ी। महरी ने चौका-बरतन करके चूल्हे में आग लगा दी, उसके पीछे पड़ गई-मैं तो अपने दुःखों को रो रही हूँ, इस चुडैल को रोटियों की धुन सवार है। निदान ६ बजे उससे न रहा गया। उसने यह पत्र लिखकर अपने हृदय की ज्वाला ठंढी की-

"सेठबी, तुम्हें अब अपने धन के घमंड ने अन्धा कर दिया है, किन्तु किसी का घमण्ड इसी तरह सदा नहीं रह सकता। कभी-न-कभी सिर अवश्य नीचा होता है। अफसोस कि कल शाम को जब तुमने मेरे प्यारे पति को पकड़वाया है, मैं वहाँ मौजूद न थी, नहीं तो अपना और तुम्हारा रक्त एक कर देती। तुम धन के मद में भूले हुए हो। मैं उसी दम तुम्हारा नशा उतार देती। स्त्री के हाथों अपमानित होकर तुम फिर किसी को मुँह दिखाने लायक न रहते। अच्छा, इसका बदला तुम्हें किसी-न-किसी तरह जरूर मिल जायगा। मेरा कलेजा उस दिन ठण्ढा होगा जब तुम निर्देश हो जाओगे और तुम्हारे कुल का नाम मिट जायगा।"