क्या चाहिए ? जाति की ऐसी अमूल्य सेवा कोई छोटी बात नहीं है। नीचो नातियों के सुधार के लिए दिल्ली में एक सोसायटी थी। बाबू साहब उसके सेक्रेटरी थे, और इस कार्य को असाधारण उत्साह से पूर्ण करते थे। जब उनका बूढ़ा कहार बीमार हुआ और क्रिश्चियन मिशन के डाक्टरों ने उसकी सश्रूषा को,तथा जब उसकी विधवा स्त्री ने निर्वाह को कोई आशा न देखकर क्रिश्चियन- समाज का आश्रय लिया, तब इन दोनों अवसरों पर बाबू साहब ने शोक केरेजोल्यूशन पास किये। संसार जानता है कि सेक्रेटरी का काम सभाएँ करना और रेजोल्यूशन बनाना है। इससे अधिक वह कुछ नहीं कर सकत।
मिस्टर रामरक्षा का जातीय उत्साह यहीं तक सीमाबद्ध न था। वे सामा-जिक कुप्रथाओं तथा अन्ध-विश्वास के प्रबल शत्र थे। होली के दिनों में जबकि मुहल्ले के चमार और कहार शराब से मतवाले होकर फाग गाते और डफ बजाते हुए निकलते, तो उन्हें बड़ा शोक होता। जाति की इस मूर्खता पर उनकी आँखों में आँसू भर पाते और वे प्रायः इस कुरीति का निवारण अपने हण्टर से किया करते। उनके हण्टर में जाति-हितषिता की उमंग उनकी वक्तृता से भी अधिक थी। उन्हीं के प्रशंसनीय प्रयत्न थे, जिन्होंने मुख्य होली के दिन। दिल्ली में हलचल मचा दी, फाग गाने के अपराध में हजारों आदमी पुलिस के पंजे में आ गये। सैकड़ों घरों में मुख्य होली के दिन मुहर्रम का-सा शोक फैल गया। उधर उनके दरवाजे पर हज़ारो पुरुष और स्त्रियाँ अपना दुखड़ा रो रही थीं। उधर बाबू साहब के हितैषी मित्रगण उनकी इस उच्च और निःस्पृह समाज-सेवा पर हार्दिक धन्यवाद दे रहे थे। सारांश यह कि बाबू
साहब का यह जातीय प्रेम और उद्योग केवल बनावटी, सहृदयताशून्य तथा शि-नेबिल था। हाँ, यदि उन्होंने किसी सदुपयोग में भाग लिया था, तो वह सम्मि-लित कुटुम्ब का विरोध था। अपने पिता के देहान्त के पश्चात् वे अपनी विधवा मा से अलग हो गये थे। इस जातीय सेवा में उनकी स्त्री विशेष सहायक थी।विधवा मा अपने बेटे और बहू के साथ नहीं रह सकती। इससे बहू की स्वाधीनता में विघ्न पड़ता है और स्वाधीनता में विघ्न पड़ने से मन दुर्बल और मस्तिष्क शक्तिहीन हो जाता है। बहू को जलाना और कुढ़ाना सास की आदत है। इसलिए बाबू रामरक्षा अपनी मा से अलग हो गये इसमें सन्देह नहीं कि