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अमावास्या की रात्रि


रहे थे। सर्दी से काँपते हुए बच्चे सूर्य-देवता से बाहर निकलने की प्रार्थना कर रहे थे। पनघट पर गाँव की अलबेली स्त्रियाँ जमा हो गई थीं। पानी भाने के लिए नहीं ; हँसने के लिए। कोई घड़े को कुएँ में डाले हुए अपनी पोपली मास की नकल कर रही थी, कोई खम्भों से चिपटी हुई अपनी सहेली से मुसकुराकर प्रेम-रहस्य की बातें करती थी। बूढ़ी स्त्रियाँ पीतों को गोद में लिये अपनी बहुओं को कोस रही थी कि घण्टे-भर हुए अब तक कुएँ से नही लौटी। किन्तु राजवैद्य लाला शंकरदास अभी तक मीठी नींद ले रहे थे। खाँसते हुए बच्चे और करहाते हुए बूढ़े उनके औषधालय के द्वारपार जमा हो चले थे। इस भीड़ भन्मड़ से कुछ दूर पर दो-तीन सुन्दर किन्तु मुआये हुए नवयुवक टहल रहे थे और वैद्यजी से ए कान्त में कुछ बातें किया चाहते थे। इतने में पंडित देवदत्त नंगे सर, नंगे बदन, लाल आँखें, डरावनी सूरत, काग़ज की एक पुलिन्दा लिये दौड़ते हुए आये और औषधालय के द्वार पर इतने जोर से हाँक लगाने लगे कि वैद्यजी चौंक पड़े और कहार को पुकारकर बोले कि दरवाजा खोल दे। कहार महात्मा बड़ी रात गये किसी बिरादरी को पंचायत से लौटे थे। उन्हें दीघ-निद्रा का रोग था जो वैद्यजी के लगातार भाषण और फटकार की औषधियों से भी कम न होता था। आप ऐंठते हुए उठे और किवाड़ खोलकर हुक्का-चिलम की चिन्ता में आग ढूँढने चले गये। हकीमजी उठने की चेष्टा कर रहे थे 'के सहसा देवदत्त उनके सम्मुख जाकर खड़े हो गये और नोटों का पुलिन्दा उनके आगे पटककर बोले-वैद्यनी, ये पचहत्तर हजार के नोट हैं। यह आपका पुरस्कार और आपकी फीस है। आप चलकर गिरिजा को देख लीजिए, और ऐसा कुछ कीजिए कि वह केवल एक बार आँखें खोल दे। यह उसकी एक दृष्टि पर न्योछावर है-केवल एक दृष्टि पर। आपको रुपये मनुष्य की नान से प्यारे हैं। वे आपके समक्ष हैं। मुझे गिरिजा की एक चितवन इन रुपयों से कई गुनी प्यारी है।

वैद्यजी ने लज्जामय सहानुभूति से देवदत्त को ओर देखा और केवल इतना कहा-मुझे अत्यन्त शोक है, मैं सदैव के लिए तुम्हारा अपराधी हूँ। किन्तु तुमने मुझे शिक्षा दे दी। ईश्वर ने चाहा तो अब ऐसी भूल कदापि न होगी। मुझे शोक है। सचमुच महाशोक है।

ये बातें वैद्यजी के अन्तःकरण से निकली थीं।

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