यह पृष्ठ प्रमाणित है।
६४
नव-निधि


हृदय उदारता के निरर्गल प्रकाश से प्रकाशित हो रहा था। कोई पार्थी उस समय उनके घर से निराश नहीं जा सकता था। सत्यनारायण की कथा धूम धाम से सुनने का निश्चय हो चुका था। गिरिजा के लिए कपड़े और गहने के'विचार ठीक हो गये। अन्तःपुर में ही उन्होंने शालिग्राम के सम्मुख मनसा-वाचा कर्मना सिर झुकाया और तब शेष चिट्ठी-पत्रियों को समेटकर उसी मख- मली थैले में रख दिया। किन्तु अब उनका यह विचार नहीं था कि संभवतःउन मुदों में भी कोई जीवित हो उठे। वरन् जीविका से निश्चित हो अब वे पैतृक प्रतिष्ठा पर अभिमान कर सकते थे। उस समय वे धैर्य और उत्साह के नशे में मस्त थे। बस, अब मुझे जिन्दगी में अधिक सम्पदा की ज़रूरत नहीं। ईश्वर ने मुझे इतना दे दिया है। इसमें मेरी और गिरिजा की ज़िन्दगी आनन्द से कट जायगी। उन्हें क्या ख़बर थी कि गिरिजा की ज़िन्दगी पहले कट चुकी है। उनके दिल में यह विचार गुदगुदा रहा था कि जिस समय गिरिजा इस आनन्द-समाचार को सुनेगी उस समय अवश्य उठ बैठेगी। चिन्ता और कष्ट ने ही उसकी ऐसी दुर्गति बना दी है। जिसे भर पेट कभी रोटी नसीब न हुई, जो कभी नैराश्यमय धैर्य और निधनता के हृदय-विदारक बन्धन से मुक्त न हुई, उसकी दशा इसके सिवा और हो ही क्या सकती है ? यह सोचते हुए वे गिरिजा के पास गये और अहिस्ता से हिलाकर बोले गिरिजा, आँखें खोलो। देखो, ईश्वर ने तुम्हारी विनती सुन ली और हमारे ऊपर दया की। कैसी तबीयत है ?

किन्तु जब गिरिजा तनिक भी न मिनकी तब उन्होंने चादर उठा दी और उसके मुँह की ओर देखा। हृदय से एक करुणात्मक ठण्डी आह निकली। वे वहीं सर थामकर बैठ गये। आँखों से शोणित की बूंदें-सी टपक पड़ी। आह ! क्या यह सम्पदा इतने मँहगे मूल्य पर मिली है ? क्या परमात्मा के दरबार से मुझे इस प्यारी जान का मूल्य दिया गया है ? ईश्वर, तुम खूब न्याय करते हो । मुझे गिरिजा की आवश्यकता है, रुपयों की आवश्यकता नहीं। यह सौदा बड़ा मँहगा है।

अमावास्या की अँधेरी रात गिरिजा के अन्धकारमय जीवन की भाँति समाप्त हो चुकी थी। खेतों में हल चलानेवाले किसान ऊँचे और सुहावने स्वर से गा