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अमावस्या की रात्रि


प्रकाश में बचे हुए पत्रों को उलट-पुलटकर देखने लगे। वे उछल पड़े और उमंग में भरे हुए पागलों की भाँति आनन्द की अवस्था में दो तीन बार कूदे। तब दौड़कर गिरिजा को गले से लगा लिया, और बोले -- प्यारी, यदि ईश्वर ने चाहा तो तू अब बच जायगी। उन्मत्तता में उन्हें एकदम यह नहीं जान पड़ा कि 'गिरिजा' अब वहाँ नहीं है, केवल उसकी लोथ है।

देवदत्त ने पत्री को उठा लिया और द्वार तक वे इस तेज़ी से आये मानों पावों में पर लग गये। परन्तु यहाँ उन्होंने अपने को रोका और हृदय में आनंद को उमड़ती हुई तरंग को रोककर कहा -- यह लीजिए, वह पत्री मिल गई। संयोग की बात है, नहीं तो सत्तर लाख के काग़ज दीमको के आहार बन गये !

आकस्मिक सफलता में कभी कभी सन्देह बाधा डालता है। जब ठाकुर ने उस पत्री के लेने को हाथ बढ़ाया तो देवदत्त को सन्देह हुआ कि कहीं वह उसे फाड़कर फेंक न दे। यद्यपि यह सन्देह निरर्थक था, किंतु मनुष्य कमज़ोरियों का पुतला है। ठाकुर ने उनके मन के भाव को ताड़ लिया। उसने बेपरवाही से पत्री को लिया और मशाल के प्रकाश में देखकर कहा -- अब मुझे विश्वास हुआ। यह लीजिए, आपका रुपया आपके समक्ष है, आशीर्वाद दीजिए कि मेरे पूर्वजों की मुक्ति हो जाय।

यह कहकर उसने अपनी कमर से एक थैला निकाला और उसमें से एक एक हज़ार के पचहत्तर नोट निकालकर देवदत्त को दे दिये पण्डितजी का हृदय बड़े वेग से धड़क रहा था। नाड़ी तीव्र गति से कूद रही थी। उन्होंने चारो ओर चौकन्नी दृष्टि से देखा कि कहीं कोई दूसरा तो नहीं खड़ा है और तब काँपते हुए हाथों से नोटों को ले लिया। अपनी उच्चता प्रकट करने की व्यर्थ चेष्टा में उन्होंने नोटों की गणना भी नहीं की। केवल उड़ती हुई दृष्टि से देखकर उन्हें समेटा और जेब में डाल लिया।

वही अमावस्या की रात्री थी। स्वर्गीय दीपक भी धुँधले हो चले थे। उनकी यात्रा सूर्यनारायण के आने की सूचना दे रही थी। उदयाचल फ़िरोजी बाना पहन चुका था। अस्ताचल में भी हल के श्वेत रङ्ग की आभा दिखाई दे रही थी। पण्डित देवदत्त ठाकुर को विदा करके घर में चले। उस समय उनका