निरद्वन्द है, वह सदा शिव है। इन लोगो में दश महा विद्यायें प्रसिद्ध हैं। उनमें से एक 'मातङ्गी' विद्या है—उसका अभिप्राय है "मातरमपि न त्यजेत"।
गुप्त साधन तन्त्र में लिखा है :—
नटी कापालिका वेश्या रजकी नापितांगना।
ब्राह्मणी शूद्रकन्या च तथा गोपाल कन्यका॥
मालाकारस्य कन्या च नव कन्याः प्रकीर्तिता।
अर्थात्—नटनी, कपालिकी, वेश्या, धोबिन, नायन, ब्राह्मणी, शूद्र की लड़की, ग्वालिन की बेटी, मालिन की बेटी ये नौ कन्याएं साधना में काम आनी चाहिये।
इसके सिवा यह श्लोक भी है।
"स्वशक्तया अयुतं पुण्यं परशक्तिप्रपूजने।'
'ततो वेश्याधिका ज्ञेया...... ......
"श्रुंणु देवी विशेषेण उत्तराम्नाय हेतवे' (ताराभक्तिसुधार्णव)।
'वेश्यागारेश्मशानेवा"...........(पुरश्चरण चन्द्रिका)॥'
शंकराचार्य से पहले इस मत का भारत में बहुत जोर रहा था। और यह बात मैंने किसी प्रामाणिक लेख मे पढ़ी थी कि पुरी का प्रसिद्ध जगन्नाथजी का मन्दिर पूर्व मे भैरवी चक्र था। कृष्ण बलदेव के बीच में पत्नी या माता के स्थान में बहन सुभद्रा की स्थापना, ब्राह्मण अंत्यजों का एक पंक्ति मे भात भोजन, उछिष्ट का विचार न करना, और मन्दिर पर के अश्लील-गन्दे चित्र इस बात का प्रमाण हैं।