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की देवदासिएं थीं, इसका आकर्षक वर्णन अंग्रेज़ी की प्रसिद्ध पुस्तक "लाइट ऑफ एशिया" में किया गया है
देवदासियों की सम्पत्ति का अधिकार पुत्रों का नहीं, पुत्रियों को मिलता है।
जगन्नाथ जी के मन्दिर में जो देवदासियाँ होती हैं, वे गान्धारी कहाती हैं। वहाँ उनके १०८ घर हैं, जो बारी बारी से दिन में तीन बार मन्दिर में नाचने जाती हैं। ये दासियाँ सिर्फ नाचती हैं, गाती नहीं। इनकी एक जाति बन गई है, और उपयुर्क्त १०८ घरों में ही वे परस्पर शादी सम्बन्ध करती हैं।
कुछ दिन हुए, बड़ी व्यवस्थापिका सभा में देवदासियों के सम्बन्ध में एक बिल पेश हुआ था—परन्तु बहुत लोगो ने इसे धर्म में हस्ताक्षेप करना बता कर इस का विरोध किया और यह बिल पास न हुआ। सुना है कि महाराज बड़ौदे ने अपने राज्य के मन्दिरों में देवदासियों को बनाना भविष्य के लिये बन्द कर दिया है।
शाक्त सम्प्रदाय का भैरवी चक्र, पञ्चमकार आदि, जिनका मध्यकाल में बहुत ज़ोर हो गया था—और उत्तर भारत, नेपाल आदि में जो अब भी एक बिखरी रीति के स्वरूप में देखने को मिलते हैं, गम्भीरता से धार्मिक व्यभिचार की दृष्टि से मनन करने योग्य विषय हैं। नेपाल में, सुना गया है कि भैरवी चक्र और नैशोत्सव अब भी होते हैं और बहुत लोग उसी के मानने वाले हैं। वहां जाति पांति का और गम्य अगम्य का कोई भेद